मंगलवार, 25 मार्च 2014

भीम के पुत्र ''घटोत्कच'' का विशालकाय कंकाल


भीम के पुत्र ''घटोत्कच'' का विशालकाय कंकाल वर्ष 2007 में नेशनल जियोग्राफिक की टीम ने भारतीय सेना की सहायता से उत्तर भारत के इलाके में खोजा था |

जिसके विषय में उस समय कई समाचार पत्रों में छपा था,पर भारत की ईसाई परस्त सरकार ने पूरे इलाके को सेना के हवाले कर इस खबर को सामने आने से रोकने का हर संभव प्रयास किया क्यों कि वेटिकन नहीं चाहता था की सनातन धर्म के पुरातन प्रमाण और सच्चाई सामने आये !

सुना है कि नेशनल ज्योग्राफिक की टीम इस कंकाल को अपने साथ ले गयी है यदि किसी भाई बहन के पास इससे सम्बंधित कोई जानकारी हो तो हमें उपलब्ध कराने का कष्ट करें |

इस कंकाल की लम्बाई अस्सी फुट है !






शनिवार, 22 मार्च 2014

भगत सिंह का पुश्तैनी घरः चिराग तले अंधेरा

चिराग तले अंधेरा... इस गाँव के बारे में ऐसा कहना एक गुस्ताख़ी है पर भारतीय पंजाब के नवाँशहर ज़िले में स्थित भगत सिंह के पुश्तैनी गाँव का यही सच भी है.


खट्करकलां नाम के इस गाँव में भगत सिंह का जन्म तो नहीं हुआ पर उनका पुश्तैनी मकान यहाँ आज भी है.
इस गाँव में आज भी भगत सिंह के पूर्वजों से जुड़ी यादें संजोकर रखी हुई हैं
पीले रंग में पुते इस पुराने मकान के बाहर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से एक नोटिस लगा हुआ है. मकान में कुल चार कमरे हैं जिनपर काँच के किवाड़ लगे हैं. इनपर ताला लगा है पर अंदर देखा जा सकता है. एक देखरेख के लिए नियुक्त कर्मचारी के अलावा यहाँ कोई नहीं रहता.
अंदर भगत सिंह के माता-पिता और परिजनों की एक पुरानी तस्वीर टंगी है. साथ में पीतल, कांसे और तांबे के कुछ बर्तन, एक पुरानी कुर्सी है. दूसरे कमरों में एक पुराना पलंग और कुछ दूसरे रोज़मर्रा के सामान हैं.
गांधी और भगत सिंह में वैचारिक मतभेद थे पर सूत कातने का एक चरखा भी यहाँ रखा हुआ है.

आज़ाद देश का गाँव

भगत सिंह के जन्म को 100 वर्ष और देश की आज़ादी को 60 बरस हो चुके हैं और इतने समय में आज़ाद भारत की तस्वीर काफ़ी बदल चुकी है. यह बदलाव इस गाँव में भी साफ़ दिखाई देता है.
खट्करकलाँ
गाँव में आज कई बड़ी आलीशान कोठियाँ खड़ी हैं
गाँव में सिखों के अलावा दलित, सवर्ण, मुस्लिम यानी सभी वर्गों की आबादी है. लगभग एक चौथाई घरों के लोग विदेशों में कमा रहे हैं और इसका असर गाँव पर भी दिख रहा है.
बड़े-बड़े मकानों, कोठियों में भगत सिंह का पैतृक घर छिपकर रह गया है. आलीशान कोठियों, साफ़ रास्तों और बड़ी गाड़ियों वाले इस गाँव के आगे कई शहर भी गंदे और पिछड़े नज़र आते हैं. कई घरों में 5-6 एसी तक लगे हैं पर कई घर गोबर के उपलों में ही खाना बनाते हैं.
यह बात और है कि दलितों और पिछड़ी जाति के लोगों की बस्ती अभी भी संकरी गलियों और खुली नालियों के साथ ही बसती है.
भगत सिंह के पैतृक निवास के पास अब एक पार्क है जिसमें हरा-भरा गलीचा है पर बड़ी कोठियों वाले गाँव ने इसे नहीं बनवाया, इसे पिछली राज्य सरकार के समय में बनवाया गया. गाँववाले तबतक यहाँ सारा कूड़ा और गंदगी डालते थे.
पंजाब के कई गाँवों के बाहर बड़े द्वार बने हैं. गाँव के नामी लोगों या धनी लोगों की स्मृति में, गाँववालों के सौजन्य से. ऐसा ही एक बड़ा-सा कंकरीट का द्वार इस गाँव के बाहर भी बना हुआ है जिसपर लिखा है शहीदे-आज़म भगत सिंह द्वार... पर इसे भी गाँव ने नहीं, प्रशासन ने बनवाया है.


भगत सिंह यानी मौज, मस्ती और..


गाँव में भगत सिंह के नाम पर पिछले कुछ बरसों से एक मेला लगता है- उनकी शहादत की याद में, 23 मार्च को.
खट्करकलाँ
गाँव अभी भी धार्मिक, जातिगत और सांप्रदायिक विभेद से नहीं उबर सका है
यहाँ के युवाओं से पूछा- भगत सिंह को कैसे याद करते हो. जवाब मिला- "मेले में याद करते हैं." मेले में क्या करते हो, जवाब मिला- "नाच, गाना, मौज, मस्ती..." पर भगत सिंह क्या सोचते थे के जवाब पर वो चुप हो जाते हैं. इन बड़े सवालों से उनका वास्ता नहीं.
भगत सिंह नास्तिक थे और यही बताते हुए उनका जीवन ख़त्म हुआ कि वो नास्तिक क्यों हैं पर गाँव में दो गुरुद्वारे हैं. एक गुरुद्वारा है सिंह सभा का जहाँ जा तो कोई भी सकता है पर वहाँ ज़्यादातर संपन्न और उच्च जाति के सिख जाते हैं.
दूसरा गुरुद्वारा गुरू रविदास गुरुद्वारा कहलाता है और यहाँ जाने वाले अधिकतर लोग दलित हैं.
यानी जाति-धर्म से ऊपर उठकर इंसान को एक बताने वाले भगत सिंह के गाँव के लोग आजतक ईश्वर को भी एक नहीं बना पाए. इंसानों को एक होने में न जाने कितना वक्त लगेगा.
गाँव के गुरुद्वारे के जत्थेदार से बातचीत की और पूछा कि क्या गाँव दूसरा भगत सिंह देगा तो जवाब में वो गाँव के सबसे धनी लोगों की तरक्की की प्रशंसा करने लग गए. गाँव में किसी भी तरह का सांप्रदायिक और जातीय भेदभाव होने को उन्होंने सिरे से ख़ारिज कर दिया.
भगत सिंह के घर की देखरेख करने वाले रामआसरे बताते हैं कि गाँव के 70 प्रतिशत लोगों को यह तक नहीं मालूम कि इस मकान में क्या यादें संजोई गई हैं. गाँव को अपनी चमक-दमक का ख्याल तो रहा पर भगत सिंह की सुध लेने का ज़िम्मा आज़ादी के पाँच दशकों तक सरकारों पर ही रहा.


नई पीढ़ी के भगत सिंह


इस गाँव में आने से पहले जितने काल्पनिक बिंब बन रहे थे, यहाँ आने के बाद सब ध्वस्त होते चले गए. गाँव की तरक्की और समृद्धि की चमक भी शायद इसी वजह से फीकी लगने लगी.
खट्करकलाँ
भगत सिंह के विचारों और प्रभाव से परे यह गाँव आम भारतीय गाँवों का ही चेहरा है
यह शायद भगत सिंह का गाँव नहीं है. यह वही गाँव है जो पंजाब का गाँव है, भारत का गाँव है. जिसके लिए विकास के मायने सामाजिक बदलाव नहीं, कंकरीट और स्टील है.
यहाँ के युवा भगत सिंह की नहीं पंजाब के उसी युवा की बानगी हैं जो आज नशे का शिकार है, गाड़ियों पर सवार है और बदलते भारत की चकाचौंध में आगे बढ़ रहा है. उसके पास आज तरह-तरह के साधन, संसाधन हैं पर इनसे वो भारत की तस्वीर बदलने के सपने पता नहीं देखता भी है या नहीं पर हाँ, ज़िंदगी का मज़ा ज़रूर लेना चाहता है.
यहाँ अमीर-ग़रीब, जाति-मज़हब, छोटा-बड़ा, समता-सम्मान.. ऐसे कई विशेषण आज भी विशेषण ही हैं, यहाँ की सच्चाई नहीं बन सके हैं.
यहाँ सरकार को दोष नहीं, श्रेय देना चाहिए. देर से ही सही, भगत सिंह का कुछ तो इस गाँव में संजोया जा चुका है. ईंट-पत्थरों और लोहे-पीतल के ही सही, भगत सिंह के कुछ निशान यहाँ दिखाई तो दे रहे हैं.

गाँधी जी के नाम खुली चिट्ठी

महात्मा गाँधी
महात्मा गाँधी अहिंसावादी तरीकों से आज़ादी के समर्थक थे
(गाँधीजी के नाम सुखदेव की यह ‘खुली चिट्ठी’ मार्च, 1931 में लिखी गई थी, जो गाँधी जी के उत्तर सहित हिन्दी ‘नवजीवन’, 30 अप्रैल, 1931 के अंक में प्रकाशित हुई थी. यहाँ सुखदेव के पत्र को प्रकाशित किया जा रहा है)
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परम कृपालु महात्मा जी,
आजकल की ताज़ा ख़बरों से मालूम होता है कि समझौते की बातचीत की सफलता के बाद आपने क्रांतिकारी कार्यकर्त्ताओं को फिलहाल अपना आंदोलन बंद कर देने और आपको अपने अहिंसावाद को आजमा देखने का आखिरी मौक़ा देने के लिए कई प्रकट प्रार्थनाएँ की हैं.
वस्तुतः किसी आंदोलन को बंद करना केवल आदर्श या भावना से होनेवाला काम नहीं है. भिन्न-भिन्न अवसरों की आवश्यकताओं का विचार ही अगुआओं को उनकी युद्धनीति बदलने के लिए विवश करता है.
माना कि सुलह की बातचीत के दरम्यान, आपने इस ओर एक क्षण के लिए भी न तो दुर्लक्ष्य किया, न इसे छिपा ही रखा कि यह समझौता अंतिम समझौता न होगा.
मैं मानता हूँ कि सब बुद्धिमान लोग बिल्कुल आसानी के साथ यह समझ गए होंगे कि आपके द्वारा प्राप्त तमाम सुधारों का अमल होने लगने पर भी कोई यह न मानेगा कि हम मंजिले-मकसूद पर पहुँच गए हैं.
संपूर्ण स्वतंत्रता जब तक न मिले, तब तक बिना विराम के लड़ते रहने के लिए महासभा लाहौर के प्रस्ताव से बँधी हुई है.
उस प्रस्ताव को देखते हुए मौजूदा सुलह और समझौता सिर्फ कामचलाऊ युद्ध-विराम है, जिसका अर्थ यही होता है कि आने वाली लड़ाई के लिए अधिक बड़े पैमाने पर अधिक अच्छी सेना तैयार करने के लिए यह थोड़ा विश्राम है.
इस विचार के साथ ही समझौते और युद्ध-विराम की शक्यता की कल्पना की जा सकती और उसका औचित्य सिद्ध हो सकता है.
 आपके समझौते के बाद आपने अपना आंदोलन बंद किया है, और फलस्वरूप आपके सब कैदी रिहा हुए हैं. पर क्रांतिकारी कैदियों का क्या? 1915 से जेलों में पड़े हुए गदर-पक्ष के बीसों कैदी सज़ा की मियाद पूरी हो जाने पर भी अब तक जेलों में सड़ रहे हैं. मार्शल लॉ के बीसों कैदी आज भी जिंदा कब्रों में दफनाये पड़े हैं. यही हाल बब्बर अकाली कैदियों का है. देवगढ़, काकोरी, मछुआ-बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र के कैदी अब तक जेल की चहारदीवारी में बंद पड़े हुए बहुतेरे कैदियों में से कुछ हैं
 

किसी भी प्रकार का युद्ध-विराम करने का उचित अवसर और उसकी शर्ते ठहराने का काम तो उस आंदोलन के अगुआओं का है.
लाहौर वाले प्रस्ताव के रहते हुए भी आपने फिलहाल सक्रिए आन्दोलन बन्द रखना उचित समझा है, तो भी वह प्रस्ताव तो कायम ही है.
इसी तरह हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के नाम से ही साफ पता चलता है कि क्रांतिवादियों का आदर्श समाज-सत्तावादी प्रजातंत्र की स्थापना करना है.
यह प्रजातंत्र मध्य का विश्राम नहीं है. उनका ध्येय प्राप्त न हो और आदर्श सिद्ध न हो, तब तक वे लड़ाई जारी रखने के लिए बँधे हुए हैं.
परंतु बदलती हुई परिस्थितियों और वातावरण के अनुसार वे अपनी युद्ध-नीति बदलने को तैयार अवश्य होंगे. क्रांतिकारी युद्ध जुदा-जुदा मौकों पर जुदा-जुदा रूप धारण करता है.
कभी वह प्रकट होता है, कभी गुप्त, कभी केवल आंदोलन-रूप होता है, और कभी जीवन-मरण का भयानक संग्राम बन जाता है.
ऐसी दशा में क्रान्तिवादियों के सामने अपना आंदोलन बंद करने के लिए विशेष कारण होने चाहिए. परंतु आपने ऐसा कोई निश्चित विचार प्रकट नहीं किया. निरी भावपूर्ण अपीलों का क्रांतिवादी युद्ध में कोई विशेष महत्त्व नहीं होता, हो नहीं सकता.
आपके समझौते के बाद आपने अपना आंदोलन बंद किया है, और फलस्वरूप आपके सब कैदी रिहा हुए हैं.
पर क्रांतिकारी कैदियों का क्या? 1915 से जेलों में पड़े हुए गदर-पक्ष के बीसों कैदी सज़ा की मियाद पूरी हो जाने पर भी अब तक जेलों में सड़ रहे हैं.
मार्शल लॉ के बीसों कैदी आज भी जिंदा कब्रों में दफनाये पड़े हैं. यही हाल बब्बर अकाली कैदियों का है.
देवगढ़, काकोरी, मछुआ-बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र के कैदी अब तक जेल की चहारदीवारी में बंद पड़े हुए बहुतेरे कैदियों में से कुछ हैं.
लाहौर, दिल्ली, चटगाँव, बम्बई, कलकत्ता और अन्य जगहों में कोई आधी दर्जन से ज़्यादा षड्यंत्र के मामले चल रहे हैं. बहुसंख्यक क्रांतिवादी भागते-फिरते हैं, और उनमें कई तो स्त्रियाँ हैं.
सचमुच आधे दर्जन से अधिक कैदी फाँसी पर लटकने की राह देख रहे हैं. इन सबका क्या?
सुखदेव
यह पत्र हिंदी अख़बार 'नवजीवन' में प्रकाशित हुआ था
लाहौर षड्यंत्र केस के सज़ायाफ्ता तीन कैदी, जो सौभाग्य से मशहूर हो गए हैं और जिन्होंने जनता की बहुत अधिक सहानुभूति प्राप्त की है, वे कुछ क्रांतिवादी दल का एक बड़ा हिस्सा नहीं हैं.
उनका भविष्य ही उस दल के सामने एकमात्र प्रश्न नहीं है. सच पूछा जाए तो उनकी सज़ा घटाने की अपेक्षा उनके फाँसी पर चढ़ जाने से ही अधिक लाभ होने की आशा है.
यह सब होते हुए भी आप इन्हें अपना आंदोलन बंद करने की सलाह देते हैं. वे ऐसा क्यों करें? आपने कोई निश्चित वस्तु की ओर निर्देश नहीं किया है.
ऐसी दशा में आपकी प्रार्थनाओं का यही मतलब होता है कि आप इस आंदोलन को कुचल देने में नौकरशाही की मदद कर रहे हैं, और आपकी विनती का अर्थ उनके दल को द्रोह, पलायन और विश्वासघात का उपदेश करना है.
 ऐसी दशा में आपकी प्रार्थनाओं का यही मतलब होता है कि आप इस आंदोलन को कुचल देने में नौकरशाही की मदद कर रहे हैं, और आपकी विनती का अर्थ उनके दल को द्रोह, पलायन और विश्वासघात का उपदेश करना है
 

यदि ऐसी बात नहीं है, तो आपके लिए उत्तम तो यह था कि आप कुछ अग्रगण्य क्रांतिकारियों के पास जाकर उनसे सारे मामले के बारे में बातचीत कर लेते.
अपना आंदोलन बंद करने के बारे में पहले आपको उनकी बुद्धी की प्रतीति करा लेने का प्रयत्न करना चाहिए था.
मैं नहीं मानता कि आप भी इस प्रचलित पुरानी कल्पना में विश्वास रखते हैं कि क्रांतिकारी बुद्धिहीन हैं, विनाश और संहार में आनंद मानने वाले हैं.
मैं आपको कहता हूँ कि वस्तुस्थिति ठीक उसकी उलटी है, वे सदैव कोई भी काम करने से पहले उसका खूब सूक्ष्म विचार कर लेते हैं, और इस प्रकार वे जो जिम्मेदारी अपने माथे लेते हैं, उसका उन्हें पूरा-पूरा ख्याल होता है.
और क्रांति के कार्य में दूसरे किसी भी अंग की अपेक्षा वे रचनात्मक अंग को अत्यंत महत्त्व का मानते हैं, हालाँकि मौजूदा हालत में अपने कार्यक्रम के संहारक अंग पर डटे रहने के सिवा और कोई चारा उनके लिए नहीं है.
उनके प्रति सरकार की मौजूदा नीति यह है कि लोगों की ओर से उन्हें अपने आंदोलन के लिए जो सहानुभूति और सहायता मिली है, उससे वंचित करके उन्हें कुचल डाला जाए. अकेले पड़ जाने पर उनका शिकार आसानी से किया जा सकता है.
ऐसी दशा में उनके दल में बुद्धि-भेद और शिथिलता पैदा करने वाली कोई भी भावपूर्ण अपील एकदम बुद्धिमानी से रहित और क्रांतिकारियों को कुचल डालने में सरकार की सीधी मदद करनेवाली होगी.
इसलिए हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि या तो आप कुछ क्राँतिकारी नेताओं से बातचीत कीजिए-उनमें से कई जेलों में हैं- और उनके साथ सुलह कीजिए या ये सब प्रार्थनाएँ बंद रखिए.
कृपा कर हित की दृष्टि से इन दो में से एक कोई रास्ता चुन लीजिए और सच्चे दिल से उस पर चलिए.
अगर आप उनकी मदद न कर सकें, तो मेहरबानी करके उन पर रहम करें. उन्हें अलग रहने दें. वे अपनी हिफाजत आप अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं.
वे जानते हैं कि भावी राजनैतिक युद्ध में सर्वोपरि स्थान क्रांतिकारी पक्ष को ही मिलनेवाला है.
लोकसमूह उनके आसपास इकट्ठा हो रहे हैं, और वह दिन दूर नहीं है, जब ये जमसमूह को अपने झंडे तले, समाजसत्ता, प्रजातंत्र के उम्दा और भव्य आदर्श की ओर ले जाते होंगे.
अथवा अगर आप सचमुच ही उनकी सहायता करना चाहते हों, तो उनका दृष्टिकोण समझ लेने के लिए उनके साथ बातचीत करके इस सवाल की पूरी तफसीलवार चर्चा कर लीजिए.
आशा है, आप कृपा करके उक्त प्रार्थना पर विचार करेंगे और अपने विचार सर्वसाधारण के सामने प्रकट करेंगे.
आपका
अनेकों में से एक

राजगुरू:संक्षिप्त जीवन परिचय

शहीद राजगुरू का पूरा नाम शिवराम हरि राजगुरू था.



राजगुरू का जन्म 24 अगस्त, 1908को पुणे ज़िले के खेड़ा गाँव में हुआ था.
उनके पिता का नाम श्री हरि नारायण और उनकी माता का नाम पार्वती बाई था.

अपने जीवन के शुरुआती दिनों से ही राजगुरू का रुझान क्रांतिकारी गतिविधियों की तरफ होने लगा था.
राजगुरू ने 19 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक पद पर नियुक्त अंग्रेज़ अधिकारी जेपी सांडर्स को गोली मारी थी.

इन क्रांतिकारियों ने कबूला था कि वे पंजाब में आज़ादी की लड़ाई के एक बड़े नायक लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेना चाहते थे.
एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस की बर्बर पिटाई में लाला लाजपत राय की मौत हो गई थी.
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू
राजगुरू ने भगत सिंह के साथ मिलकर सांडर्स को गोली मारी थी

राजगुरू ने 28 सितंबर, 1929 को एक गवर्नर को मारने की कोशिश की थी जिसके अगले दिन उन्हें पुणे से गिरफ़्तार कर लिया गया.
उन पर लाहौर षड़यंत्र मामले में शामिल होने का मुक़दमा भी चलाया गया.

राजगुरू को भी 23 मार्च, 1931 की शाम सात बजे लाहौर के केंद्रीय कारागार में उनके दोस्तों भगत सिंह और सुखदेव के साथ फ़ाँसी पर लटका दिया गया.

इतिहासकार बताते हैं कि फाँसी को लेकर जनता में बढ़ते रोष को ध्यान में रखते हुए अंग्रेज़ अधिकारियों ने तीनों क्रांतिकारियों के शवों का अंतिम संस्कार फ़िरोज़पुर ज़िले के हुसैनीवाला में कर दिया था.

सुखदेव: संक्षिप्त जीवन परिचय

भारतीय क्रांतिकारी सुखदेव थापर

जन्म पंजाब के लुधियाना ज़िले के पुराने किले के पास नौघरा इलाक़े में. 
गाँधी जी को सुखदेव का लिखा पत्र बहुत चर्चा का विषय बना था
तारीख 15 मई, वर्ष 1907.
माता-पिता उनकी माता का नाम रल्ली देवी और पिता का नाम राम लाल था.

युवा होते-होते सुखदेव क्रांतिकारी पार्टी के सदस्य बन गए थे. वो शहीद भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद के निकट के सहयोगी थे.
सुखदेव ने पंजाब सहित उत्तर भारत के दूसरे इलाक़ों में भी क्रांतिकारी गतिविधियाँ बढ़ाने और संगठन की इकाइयाँ बनाने में सक्रिय भूमिका निभाई.

भगत सिंह के साथ सुखदेव ने भी नौजवान भारत सभा के गठन में बड़ी भूमिका निभाई थी.
सुखदेव हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के भी सक्रिय सदस्य थे.

शहीद सुखदेव का घर
सुखदेव लुधियाना के रहने वाले थे
उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज़ में स्वाध्याय मंडलों की स्थापना की थी जिनका उद्देश्य भारत के अतीत के बारे में जानकारी हासिल करना और विश्व के क्रांतिकारी साहित्यों के बेहतरीन पक्षों का अध्ययन करना था.

गाँधी जी को लिखा सुखदेव का मार्च, 1931 का वो पत्र बहुत चर्चा में आया था जिसमें सुखदेव ने गाँधी जी द्वारा क्रांतिकारी गतिविधियों को नकारे जाने का विरोध किया था.

सुखदेव को लाहौर षड़यंत्र मामले में बंदी बनाया गया और एकतरफ़ा अदालती कार्रवाई में उन्हें दोषी करार देते हुए फाँसी की सज़ा सुनाई गई.
सुखदेव को लाहौर के केंद्रीय कारागार में भगत सिंह और राजगुरू के साथ 23 मार्च, 1931 की शाम सात बजे फाँसी पर लटका दिया गया था.

कई इतिहासकार मानते हैं कि फाँसी को लेकर जनता में बढ़ते रोष को ध्यान में रखते हुए अंग्रेज़ अधिकारियों ने तीनों क्रांतिकारियों के शवों का अंतिम संस्कार फ़िरोज़पुर ज़िले के हुसैनीवाला में कर दिया था.

भगत सिंह: एक संक्षिप्त परिचय

भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को लायलपुर ज़िले के बंगा में चक नंबर 105(अब पाकिस्तान में) नामक जगह पर हुआ था.


भगत सिंह पर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बहुत असर पड़ा था
हालांकि उनका पैतृक निवास आज भी भारतीय पंजाब के नवांशहर ज़िले के खट्करकलाँ गाँव में स्थित है.


उनके पिता का नाम किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती था. यह एक सिख परिवार था जिसने आर्यसमाज के विचार को अपना लिया था.
अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था.

लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन नाम के एक क्रांतिकारी संगठन से जुड़ गए थे.

भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिए नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी. इस संगठन का उद्देश्य ‘सेवा,त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले’ नवयुवक तैयार करना था.
भगत सिंह ने राजगुरू के साथ मिलकर लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जेपी सांडर्स को मारा था. इस कार्रवाई में क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद ने भी उनकी सहायता की थी.

भगत सिंह
भगत सिंह ने नई दिल्ली की केंद्रीय एसेंबली में बम फेंका था.
क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने नई दिल्ली की सेंट्रल एसेंबली के सभागार में 8 अप्रैल, 1929 को 'अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिए' बम और पर्चे फेंके थे.

बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी.
भगत सिंह पर ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने का आरोप लगा और उन पर लाहौर षड़यंत्र के तहत मामला बनाया गया.
लाहौर षड़यंत्र मामले में भगत सिंह को सुखदेव और राजगुरू के साथ फाँसी की सज़ा सुनाई गई जबकि बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास दिया गया.

भगत सिंह को 23 मार्च, 1931 की शाम सात बजे फाँसी पर लटका दिया गया.
इतिहासकार बताते हैं कि फाँसी को लेकर जनता में बढ़ते रोष को ध्यान में रखते हुए अंग्रेज़ अधिकारियों ने तीनों क्रांतिकारियों के शवों का अंतिम संस्कार फ़िरोज़पुर ज़िले के हुसैनीवाला में कर दिया था.

भगत सिंह ने क्रांतिकारी आंदोलन को ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा दिया था.

''भगत सिंह की फाँसी गांधी की नैतिक हार''

आज़ादी के आंदोलन में भगत सिंह के समय में दो प्रमुख धाराएं थीं. एक निश्चित रूप से महात्मा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की धारा थी जो उस वक्त सबसे ज़्यादा प्रभावशाली और व्यापक पहुंच वाली थी.

दूसरी धारा क्रांतिकारियों की धारा थी जिसके एक प्रमुख नेता थे भगत सिंह. हालांकि इस धारा का आधार उतना व्यापक नहीं था जितना कि कांग्रेस का था लेकिन वैचारिक रूप से क्रांतिकारी बहुत ताकतवर थे.

इस दौरान कांग्रेस के गरमदल के नेता, बिपनचंद्र पॉल, लाला लाजपत राय और बालगंगाधर तिलक गुज़र चुके थे और नरमदल वालों का वर्चस्व था जिसकी पूरी लगाम गांधी के हाथ में थी. गांधी इस वक्त अपने दौर के चरम पर थे.

गांधी शांतिपूर्वक नैतिकता की लड़ाई लड़ रहे थे जो अंग्रेज़ों के लिए काफ़ी अच्छा था क्योंकि इससे उनकी व्यवस्था पर बहुत ज़्यादा असर नहीं पड़ता था पर मध्यमवर्गीय नेताओं की इस नैतिक लड़ाई का आम लोगों को भी बहुत लाभ नहीं मिलता था.

महात्मा गांधी गुजरात के थे. अहमदाबाद उस वक्त एक बड़ा मज़दूर केंद्र था. एक सवाल पैदा होता है कि वहाँ के हज़ारों-लाखों लोगों के लिए गांधी या पटेल ने कोई आंदोलन क्यों नहीं खड़ा किया. बल्कि कुछ अर्थों में गांधी ने वहाँ पैदा होते मज़दूर आंदोलन के लिए यही चाहा कि वो और प्रभावी न हो. मज़दूर आंदोलन में सक्रिय इंदुलाल याज्ञनिक जैसे कांग्रेसी नेता भी उपेक्षित ही रहे.
नेहरू थोड़ा-सा हटकर सोचते थे और ऐसे मॉडल पर काम करना चाहते थे जो व्यवस्था में बदलाव लाए पर इस मामले में वो कांग्रेस में अकेले ही पड़े रहे.

कांग्रेस और भगत सिंह


भगत सिंह की सबसे ख़ास बात यह थी कि वो कांग्रेस और गांधी के इस आंदोलन को पैने तरीके से समझते थे और इसीलिए उन्होंने कहा था कि कांग्रेस का आंदोलन आख़िर में एक समझौते में तब्दील हो जाएगा.

उन्होंने कहा था कि कांग्रेस 16 आने में एक आने के लिए संघर्ष कर रही है और उन्हें वो भी हासिल नहीं होगा.
गांधी का रास्ता पूँजीवादी रास्ता था. कई पूँजीवादी, पूँजीपति और ज़मींदार गांधी के आंदोलन में उनके साथ थे. भगत सिंह का रास्ता इससे बिल्कुल अलग क्रांतिकारी समाजवादी आंदोलन का रास्ता था.
इतनी छोटी उम्र में भी भगत सिंह ने एक परिपक्व राजनीतिक समझ को सामने रखते हुए एक ज़मीन तैयार की जिससे और क्रांतिकारी पैदा हो सकें. भगत सिंह के दौर में क़रीब 2000 किशोर क्रांतिकारियों के ख़िलाफ़ मामले दर्ज हुए थे.
गांधी ने भगत सिंह के असेंबली पर बम फ़ेंकने के क़दम को 'पागल युवकों का कृत्य' करार दिया था. उधर भगत सिंह को लगता था कि गांधी जिस तरीक़े से आज़ादी हासिल करना चाहते हैं वो सफल नहीं होगा.
एक ही बात के लिए भगत सिंह गांधी के सामर्थ्य को मानते थे और उनका आदर करते थे और वो बात थी गांधी की देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुँच और प्रभाव.

गांधी बनाम भगत सिंह


जब 23 वर्ष के भगत सिंह शहीद हुए, उस वक्त गांधी जी की उम्र 62 वर्ष थी पर लोकप्रियता के मामले में भगत सिंह कहीं से कम नहीं थे. पट्टाभि सीतारमैया जैसे कांग्रेस के इतिहासकारों ने कहा है कि एक समय भगत सिंह की लोकप्रियता किसी भी तरह से गांधी से कम नहीं थी.

भगत सिंह युवाओं के बीच देशभर में ख़ासे लोकप्रिय हो रहे थे. ब्रिटेन में भी उनके समर्थन में प्रदर्शन हुए थे. भगत सिंह की यह बढ़ती हुई लोकप्रियता कांग्रेस को एक ख़तरे की तरह दिखाई देती थी.
कई इतिहासकारों के मुताबिक गांधी कभी नहीं चाहते थे कि हिंसक क्रांतिकारी आंदोलन की ताकत बढ़े और भगत सिंह को इतनी लोकप्रियता मिले क्योंकि गांधी इस आंदोलन को रोक नहीं सकते थे, यह उनके वश में नहीं था. इस मामले में गांधी और ब्रिटिश हुकूमत के हित एक जैसे था. दोनों इस आंदोलन को प्रभावी नहीं होने देना चाहते थे.
इस मामले में गांधी और इरविन के संवाद पर ध्यान देना होगा जो कि इतना नाटकीय है कि दोनों लगभग मिलजुलकर तय कर रहे हैं कि कौन कितना विरोध करेगा.
दोनों इस बात पर सहमत थे कि इस प्रवृत्ति को बल नहीं मिलना चाहिए. भेद इस बात पर था कि इरविन के मुताबिक फाँसी न देने से इस प्रवृत्ति को बल मिलता और गांधी कह रहे थे कि फाँसी दी तो इस प्रवृत्ति को बल मिलेगा.

भगत सिंह की फाँसी


गांधी ने अपने पत्र में इतना ही लिखा कि इनको फाँसी न दी जाए तो अच्छा है. इससे ज़्यादा ज़ोर उनकी फाँसी टलवाने के लिए गांधी ने नहीं दिया. भावनात्मक या वैचारिक रुप से गांधी यह तर्क नहीं करते हैं कि फाँसी पूरी तरह से ग़लत है.
गांधी ने इरविन के साथ 5 मार्च, 1931 को हुए समझौते में भी इस फाँसी को टालने की शर्त शामिल नहीं की. जबकि फाँसी टालने को समझौते का हिस्सा बनाने के लिए उनपर कांग्रेस के अंदर और देशभर से दबाव था.

अगर यह समझौता राष्ट्रीय आंदोलन के हित में हो रहा था तो क्या गांधी भगत सिंह के संघर्ष को राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा नहीं मानते थे.
गांधी की बजाय सुभाषचंद्र बोस इस फाँसी के सख़्त ख़िलाफ़ थे और कांग्रेस में रहते हुए उन्होंने गांधी से परे जाकर इस फाँसी के विरोध में दिल्ली में 20 मार्च, 1931 को एक बड़ी जनसभा भी की.
इस सभा को रुकवाने के लिए इरविन ने गांधी को एक पत्र भी लिखा था कि इस सभा को रुकवाया जाए पर सुभाष चंद्र बोस गांधी के कहने से कहाँ रुकने वाले थे.
गांधी ने इस बातचीत के दौरान इरविन से यह भी कहा था कि अगर इन युवकों की फाँसी माफ़ कर दी जाएगी तो इन्होंने मुझसे वादा किया है कि ये भविष्य में कभी हिंसा का रास्ता नहीं अपनाएंगे. गांधी के इस कथन का भगत सिंह ने पूरी तरह से खंडन किया था.
असलियत तो यह है कि भगत सिंह हर हाल में फाँसी चढ़ना चाहते थे ताकि इससे प्रेरित होकर कई और क्रांतिकारी पैदा हों. वो कतई नहीं चाहते थे कि उनकी फाँसी रुकवाने का श्रेय गांधी को मिले क्योंकि उनका मानना था कि इससे क्रांतिकारी आंदोलन को नुकसान पहुँचता.
उन्होंने देश के लिए प्राण तो दिए पर किसी तथाकथित अंधे राष्ट्रवादी के रूप में नहीं बल्कि इसी भावना से कि उनके फाँसी पर चढ़ने से आज़ादी की लड़ाई को लाभ मिलता. इस मामले में मैं भगत सिंह को क्यूबा के क्रांतिकारी चे ग्वेरा के समकक्ष रखकर देखता हूँ. दोनों ही दुनिया के लिए अलग तरह के उदाहरण थे.
मेरे विचार में भगत सिंह की फाँसी जहाँ एक ओर गांधी और ब्रिटिश हुकूमत की नैतिक हार में तब्दील हुई वहीं यह भगत सिंह और क्रांतिकारी आंदोलन की नैतिक जीत भी बनी.

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

भगत सिंह की पसंदीदा शायरी

Selections from Urdu poetry in Bhagat Singh's own handwriting


भगत सिंह की पसंदीदा शायरी 


यह न थी हमारी किस्मत जो विसाले यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तेज़ार होता

तेरे वादे पर जिऐं हम तो यह जान छूट जाना
कि खुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता

तेरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था अहदे फ़र्दा
कभी तू न तोड़ सकता अगर इस्तेवार होता
यह कहाँ की दोस्ती है (कि) बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई ग़म गुसार होता


कहूं किससे मैं के क्या है शबे ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता
(ग़ालिब)

इशरते कत्ल गहे अहले तमन्ना मत पूछ
इदे-नज्जारा है शमशीर की उरियाँ होना

की तेरे क़त्ल के बाद उसने ज़फा होना
कि उस ज़ुद पशेमाँ का पशेमां होना

हैफ उस चारगिरह कपड़े की क़िस्मत ग़ालिब
जिस की किस्मत में लिखा हो आशिक़ का गरेबां होना
(ग़ालिब)
मैं शमां आखिर शब हूँ सुन सर गुज़श्त मेरी
फिर सुबह होने तक तो किस्सा ही मुख़्तसर है

अच्छा है दिल के साथ रहे पासबाने अक़्ल
लेकिन कभी – कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे

न पूछ इक़बाल का ठिकाना अभी वही कैफ़ियत है उस की
कहीं सरेराह गुज़र बैठा सितमकशे इन्तेज़ार होगा

औरौं का पयाम और मेरा पयाम और है
इश्क के दर्दमन्दों का तरज़े कलाम और है
(इक़बाल)
अक्ल क्या चीज़ है एक वज़ा की पाबन्दी है
दिल को मुद्दत हुई इस कैद से आज़ाद किया

नशा पिला के गिराना तो सबको आता है
मज़ा तो जब है कि गिरतों को थाम ले साकी
(ग़ालिब)

भला निभेगी तेरी हमसे क्यों कर ऍ वायज़
कि हम तो रस्में मोहब्बत को आम करते हैं
मैं उनकी महफ़िल-ए-इशरत से कांप जाता हूँ
जो घर को फूंक के दुनिया में नाम करते हैं।
कोई दम का मेहमां हूँ ऐ अहले महफ़िल
चरागे सहर हूँ बुझा चाहता हूँ।

आबो हवा में रहेगी ख़्याल की बिजली
यह मुश्ते ख़ाक है फ़ानी रहे न रहे


खुदा के आशिक़ तो हैं हजारों बनों में फिरते हैं मारे-मारे
मै उसका बन्दा बनूंगा जिसको खुदा के बन्दों से प्यार होगा

मैं वो चिराग हूँ जिसको फरोगेहस्ती में
करीब सुबह रौशन किया, बुझा भी दिया

तुझे, शाख-ए-गुल से तोडें जहेनसीब तेरे
तड़पते रह गए गुलज़ार में रक़ीब तेरे।

दहर को देते हैं मुए दीद-ए-गिरियाँ हम
आखिरी बादल हैं एक गुजरे हुए तूफां के हम

मैं ज़ुल्मते शब में ले के निकलूंगा अपने दर मांदा कारवां को
शरर फ़शां होगी आह मेरी नफ़स मेरा शोला बार होगा

जो शाख-ए- नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना पाएदार होगा।