शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

मुस्लिम देश इंड़ोनेशिया में नहीं होते दंगे क्यो ?

आपको पता है इंड़ोनेशिया सभी मुस्लिम देशो में सबसे अधिक आबादी वाला देश है, यहाँ 86.1% मुस्लिम और केवल 3% हिन्दु है फिर भी वहाँ अमन और शांति है, कोई दंगा फसाद या जेहाद नहीं, इसका पता है क्या कारण है ?

इसका कारण है जब वहाँ पर मुस्लिम के यहां बच्चे पैदा होते है, तो और देशो की तरह उनके कान में जेहादी बनने के मंत्र ना मार कर रामायण का पाठ कराया जाता है, जो बच्चो के कान के माध्यम से उनके मन में उतरता है ।


उनकी मुद्रा पर भगवान श्री गणेश का चित्र अंकित है (जैसा आप चित्र में देख रहें हैं) और इंड़ोनेशिया के सबसे बड़े एयरपोर्ट पर समुद्र मंथन करते हुए, एक पत्थर की झाँकी लगाई हुई है, जो एयरपोर्ट में प्रवेश करते ही दिखाई देती है, समय समय पर मुस्लिम्स अपने यहाँ कथा करवाते है, मंदिरो को वहाँ पर तोड़ा नहीं जाता, बल्कि मंदिरो को वहाँ मुस्लिम समाज द्वारा पुजा जाता है, भगवान राम की कही बातो को बच्चो को पढाया जाता है ।



आप रोज सूनते होंगे कि फलां मुस्लिम देश में ब्लास्ट हुआ तो इतने मर गए, फलां मुस्लिम देश में जेहादियो ने ब्लास्ट लिया तो इतने मर गए, पर आपने ये कभी नहीं सूना होगा कि इंड़ोनेशिया में ब्लास्ट हुआ या जिहादियो ने लोगो को मार दिया । आखिर जिस बच्चे के पैदा होते ही उसके कान में प्रभु श्री राम की कथा का प्रवाह कर दिया जाए फिर वो बच्चा आतंकवादी या जेहादी कैसे बन सकता है ?

श्री कृष्ण एवं अर्जुन जकार्ता (राजधानी इंड़ोनेशिया)

इंड़ोनेशिया के मुस्लिम और वहाँ की सरकार समझदार हैं उनको पता है कि जिन जिन मुस्लिम देशो में से हिन्दुओ को खत्म किया गया, वहाँ पर अल्ला भी उनसे नाराज़ हो गया । आज वो देश खत्म होने की कगार पर खड़े हैं, खाने को रोटी नहीं, तन ढकने को कपड़ा नहीं और पड़ोसी देश दुश्मन बने हुए है वो अलग । इंड़ोनेशिया एक मात्र मुस्लिम देश है जिसका कोई बुरा करना नहीं चाहता या उसका कोई दुश्मन नहीं है, इसके विपरीत कोई भी मुस्लिम देश उठा कर देख लो जिसका कोई दुश्मन ना हो ।

एक लाइन में कहूँ तो इंड़ोनेशिया के मुस्लिम्स को पता है कि उनका धर्म कहाँ से पैदा हुआ और उनके पुर्वज कौन है.. वो इसको मानने में शर्म महसूस नहीं करते हैं कि हमारे पूर्वज हिन्दु थे । इसके विपरीत भारत के मुस्लिम्स जिनको पता है कि अरब से हमारा कोई लेना देना नहीं है और सबके पूर्वज हिन्दु थे पिर भी पता नहीं ये मानने को तैयार क्यो नहीं ?

चाहे पेड़ कितना भी बड़ा हो अपनी जड़ो को गाली देने लगेगा या उसको ही काट बैठेगा तो उसके जीवित रहने की कोई संभावना नहीं वो सुख कर गिर पड़ेगा, ऐसा ही कुछ सनातन भी इस्लाम की जड़ो में है और उन्हे ये समझना होगा ।

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

पहले विमान का निर्माण भारत में

आज के समय का दुनिया का पहला विमान शिवकर बापूजी तलपडे (1864–1916) ने बनाया था जो की मुंबई के रहने वाले थे तथा Pathare Prabhu community के सदस्य थे। शिवकर जी संस्कृत व वेदों के महान ज्ञाता थे। उन्होंने उस विमान का नाम मारुतसखा (मारुत अर्थात हवा, वायु ) (सखा का अर्थ मित्र ) रखा। मारुतसखा शब्द का प्रयोग ऋग्वेद (7.92.2) में देवी सरस्वती के लिए प्रयुक्त हुआ है। सन 1895 में उन्होंने इस विमान का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया और 1500 फुट की ऊंचाई तक उड़ाया । इनकी रचना का मुख्य आधार महर्षि भारद्वाज रचित ‘विमान शास्त्र‘ था ।



जैसा के हम जानते है उस समय अंग्रेजो की हुकूमत थी उन्हें एक भारतीय की यह सफलता रास नही आयी । अंग्रेजी हुकूमत के कहने पर बड़ोदा के रजवाडो ने शिवकर जी की और अधिक सहायता नही की।
अंग्रेजों ने एक समझोते के नाम पर शिवकर जी से धोखा किया और उस विमान की रचना से सम्बंधित समस्त दस्तावेज उनसे हथिया लिए । फिर क्या होना था वे दस्तावेज अमेरिका पहुंचे और Wright brothers के हाथ लग गये | इसके 8 वर्ष पश्चात सन 1903 में राईट बंधुओं ने उसी प्रकार के एक विमान की रचना की और अपने नाम से रजिस्टर करवा लिया और ढंढोरा पिटते फिरे ।

इसी दोरान शिवकर जी की पत्नी की मृत्यु हो गई। मानसिक रूप से दुखी होने के कारण शिवकर जी अपने शोध और आगे न बड़ा सके | परन्तु उनकी इस अनोखी खोज ने भारतीय विद्वानों को वैदिक शास्त्रों की महानता से अवगत करवाया । भारतीय विद्वानों ने उन्हें "विद्या प्रकाश प्रदीप" की उपाधि से अलंकृत किया ।
सन 1916 में शिवकर जी इस दुनिया से विदा हुए । आज का समाज Wright brothers को हवाई जहाज का श्रेय देता है जबकि हमें शिवकर जी का शुक्रिया अदा करना चाहिए जिन्होंने विदेशियों से 8 वर्ष पूर्व ही विमान कर निर्माण कर लिया था ।

महाभारत यूगीन विमान की खोज भी देंखे ।


गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013


                 एक गांव जहाँ मां देती है बेटी की हत्‍या का हुक्‍म



क्‍या आपने कभी जिंदगी और मौत को एक साथ किसी घर में दस्‍तक देते सुना है? हो सकता है यह सुनने में आपको थोड़ा अजीब लगे मगर आजाद हिंदुस्‍तान का एक इलाका ऐसा है, जहां जिदंगी और मौत दोनो एक साथ दाखिल होते हैं। ये वो इला‍का है जहां अगर बेटियां पैदा होती हैं, तो उनकी मां खुद उसे जान से मारने का हुक्‍म दे देती है।

जी हां राजस्‍थान के जैसलमेर और बाड़मेड के बीच देवड़ा गांव में मौत के पहरे के बीच जिंदगी का सफर शुरु होता है। इस अजीबो-गरीब परंपरा के बारे में हम आपको इसलिये बता रहे हैं, क्‍योंकि जब दिल पर लगेगी तभी तो बात बनेगी। गांव में बेटियों का अकाल इस कदर है कि पिछले 110 सालों से उस गांव में किसी की बारात नहीं आई। 110 साल बाद उस गांव में बारात आई तो लोग हैरान हो गये कि इस गांव में किसकी बेटी रह गई थी, जिसकी बारात आई है।

तो आईए पहले इस शादी के बारे में छोटी सी चर्चा कर लें। दरअसल देवड़ा के एक परिवार में बेटी ने जन्‍म लिया। घर वाले उसे मारना नहीं चाहते थे, लिहाजा उन लोगों ने पैदा होते ही उसे लड़के की तरह पालना शुरु कर दिया। लड़कों की तरह कपड़े पहनना और उन्‍हीं के बीच उठना बैठना। ऐसा कर घर वालों ने लड़की की जिंदगी बचा ली और जब वह बड़ी हुई तो उसे मार देना का ख्‍याल समाज के मन से निकल गया। बीते फरवरी माह में ही उसने अपना पांव डोली में रखा जो 110 साल बाद संभव हो सका है।

जन्‍म से पहले ही जारी हो जाता है मौत का फरमान राजस्‍थान के देवड़ा गांव में लोगों के लिये बेटियां आज भी अभिशाप और बोझ बनी हुई हैं। बच्‍ची पैदा होते ही घर वाले या रिश्‍तेदार उसकी हत्‍या कर देते हैं। अगर घर वाले या रिश्‍तेदार हत्‍या नहीं करना चाहते तो गांव की दाई को इसका हुक्‍म दे दिया जाता है, कि अगर बेटी पैदा हो तो उसे फौरन जान से मार दे।

अब हम जो आपको बताने जा रहे हैं उसे जानने के बाद आपके रौंगटे खड़े हो जाएंगे। बेटियों को मारने के लिये मुं‍ह में नमक ठूस दिया जाता है। यह तो फिर भी कम है कहीं-कहीं तो अफीम पिला दी जाती है या फिर मुं‍ह और नाक में बालू ठूस दी जाती है।
किसी को हत्‍या का शक ना हो इसलिये कई बार मां ही बेटी का नाक और मुंह बंद कर देती है या फिर उसके उपर भारी तकिया रख दिया जाता है। मौत के बाद कह दिया जाता है कि बच्‍ची मरी हुई ही पैदा हुई थी। इस पूरे मामले में खौफनाक बात यह है कि जिस मां ने अपने कोख में बच्‍चे को 9 माह तक पाला हो उसे ही घर वाले यह आदेश देते हैं कि वह खुद उसकी हत्‍या करे।

मुश्‍किल है लड़कियों का दीदार होना पश्चिम राजस्‍थान के तेवड़ा, तेजमालता, मोढ़ा और डेगरी वो गांव है जहां बेटियों का दीदार किस्‍मत वालों को ही होता है। इन इलाको के लोग शादी करना तो चाहते हैं मगर उन्‍हें लड़कियां नहीं मिलतीं। मिलेंगी भी कैसे जब पैदा होने से पहले या फिर पैदा होने के तुरंत बाद उन्‍हें जान से मार दिया जाता है।


गैर सरकारी संस्‍थान लोक शक्ति विकास के सर्वे के आकंडों पर ध्‍यान दें तो बाड़मेड़ में स्‍त्री पुरूष अनुपात 791 है जबकि जैसलमेर में 807। देवड़ा में ये आंकड़े इनसे सैकड़ों कम हैं। सदियों पुरानी है बेटियों को जान से मारने की यह परंपरा गांव में जाकर और लोगों से घुल मिल जाने के बाद यह पता चलता है कि यहां बेटियों को मारने का परपंरा सदियों से चला आ रहा है। लोग कहते हैं कि मुगल काल के दौरान नवाब राजपूतों को अपमानित करने के लिये उनकी कुवांरी लड़कियों को अगवा कर ले जाते है। उसके बाद उन लड़कियों का बलात्‍कार करने के बाद उन्‍हें छोड़ दिया जाता था या फिर रखैल बना लिया जाता था। इस अपमान से बचने के लिये लोगों ने बेटियों को पैदा होते ही मारना शुरु कर दिया। उसके बाद से ही यह परंपरा चली आ रही है।

परंपरा में थोड़ा बदलाव आया मगर तबतक नये दौर ने दश्‍तक दे दी और फिर दहेज के लिये बे‍टियों को मारा जाना शुरु हो गया। जिन बेटियों को पैदा होने से पहले या पैदा होने के तुरंत बाद मार दिया गया अगर वह बोल सकती तो शायद यही बोलती “मेरे हाथ इतने छोटे और कोमल है कि आपको पकड़ कर रोक नहीं सकती, अगर द‍हेज के लिये मुझे मार रही हो तो इसकी फिक्र ना करो मां… बड़ी होकर मैं अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊंगी और फिर तुम्‍हारे घर से डोली में बैठकर चली जाऊंगी… मुझे अभी से जाने को ना कहो मां“।

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

'मैंने गाँधी को क्यों मारा ?'


'मैंने गाँधी को क्यों मारा?'- नाथूराम गॉडसे का अन्तिम बयान

(इसे सुनकर अदालत में उपस्थित सभी लोगों की आँखें गीली हो गयी थीं और कई तो रोने
लगे थे।एक न्यायाधीश महोदय ने अपनी टिप्पणी में लिखा था कि यदि उस समय अदालत
में उपस्थितलोगों को जूरी बना दिया जाता और उनसे फैसला देने को कहा जाता, तो निस्संदेह
वे प्रचण्ड बहुमत से नाथूराम के निर्दोष होने का निर्णय देते।)

यह तस्वीर घटना के समय की असली तस्वीर नहीं है यह एक फिल्म से लिया गया चित्र है कृपया इसको असली चित्र न समझे(movie-nine hours to rama )


एक धार्मिक ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के कारण मैं हिन्दू धर्म, हिन्दू इतिहास और हिन्दू संस्कृति की
पूजा करता हूँ। इसलिए मैं सम्पूर्ण हिन्दुत्व पर गर्व करता हूँ। जब मैं बड़ा हुआ, तो मैंने मुक्त विचार करने की प्रवृत्ति
का विकास किया, जो किसी भी राजनैतिक या धार्मिक वाद की असत्य-मूलक भक्ति की बातों से मुक्त हो।
यही कारण है कि मैंने अस्पृश्यता और जन्म पर आधारित जातिवाद को मिटाने के लिए सक्रिय कार्य किया।
मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जातिवाद-विरोधी आन्दोलन में खुले रूप में शामिल हुआ और यह मानता हूँ कि सभी हिन्दुओं
के धार्मिक और सामाजिक अधिकार समान हैं, सभी को उनकी योग्यता के अनुसार छोटा या बड़ा माना जाना चाहिए,
न कि किसी विशेष जाति या व्यवसाय में जन्म लेने के कारण। मैं जातिवाद-विरोधी सहभोजों के आयोजन में सक्रिय
भाग लिया करता था, जिसमें हजारों हिन्दू ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,चमार और भंगी भाग लेते थे। हमने जाति के बंधनों को
तोड़ा और एक दूसरे के साथ भोजन किया।


                                                     मध्य में नाथू राम गोडसे और उनके दायीं तरह वीर सावरकर जी


मैंने रावण, चाणक्य, दादाभाई नौरोजी, विवेकानन्द, गोखले, तिलक के भाषणों और लेखों को पढ़ा है। साथ ही
मैंने भारत और कुछ अन्य प्रमुख देशों जैसे इंग्लैंड, फ्रांस, अमेरिका और रूस के प्राचीन और आधुनिक इतिहास को
भी पढ़ा है। इनके अतिरिक्त मैंने समाजवाद और माक्र्सवाद के सिद्धान्तों का भी अध्ययन किया है। लेकिन इन सबसे
ऊपर मैंने वीर सावरकर और गाँधीजी के लेखों और भाषणों का भी गहरायी से अध्ययन किया है, क्योंकि मेरे विचार
से किसी भी अन्य अकेली विचारधारा की तुलना में इन दो विचारधाराओं ने पिछले लगभग तीस वर्षों में भारतीय
जनता के विचारों को मोड़ देने और सक्रिय करने में सबसे अधिक भूमिका निभायी है।
इस समस्त अध्ययन और चिन्तन से मेरा यह विश्वास बन गया है कि एक देशभक्त और एक विश्व नागरिक के नाते
हिन्दुत्व और हिन्दुओं की सेवा करना मेरा पहला कर्तव्य है। स्वतंत्रता प्राप्त करने और लगभग 30 करोड़ हिन्दुओं के
न्यायपूर्ण हितों की रक्षा करने से समस्त भारत, जो समस्त मानव जाति का पाँचवा भाग है, को स्वतः ही आजादी प्राप्त
होगी और उसका कल्याण होगा। इस निश्चय के साथ ही मैंने अपना सम्पूर्ण जीवन हिन्दू संगठन की विचारधारा और
कार्यक्रम में लगा देने का निर्णय किया, क्योंकि मेरा विश्वास है कि केवल इसी विधि से मेरी मातृभूमि हिन्दुस्तान की
राष्ट्रीय स्वतंत्रता को प्राप्त किया और सुरक्षित रखा जा सकेगा एवं इसके साथ ही वह मानवता की सच्ची सेवा भी
कर सकेगी।

                                                                           नाथूराम विनायक गोडसे


सन् 1920 से अर्थात् लोकमान्य तिलक के देहान्त के पश्चात् कांग्रेस में गाँधीजी का प्रभाव पहले बढ़ा और फिर
सर्वोच्च हो गया। जन जागरण के लिए उनकी गतिविधियाँ अपने आप में बेजोड़ थीं और फिर सत्य तथा अहिंसा के
नारों से वे अधिक मुखर हुईं, जिनको उन्होंने देश के समक्ष आडम्बर के साथ रखा था। कोई भी बुद्धिमान या ज्ञानी
व्यक्ति इन नारों पर आपत्ति नहीं उठा सकता। वास्तव में इनमें कुछ भी नया अथवा मौलिक नहीं है। वे प्रत्येक सांवैधानिक
जन आन्दोलन में शामिल होते हैं। लेकिन यह केवल दिवा स्वप्न ही है यदि आप यह सोचते हैं कि मानवता का एक बड़ा
भाग इन उच्च सिद्धान्तों का अपने सामान्य दैनिक जीवन में अवलम्बन लेने या व्यवहार में लाने में समर्थ है या कभी
हो सकता है।

वस्तुतः सम्मान, कर्तव्य और अपने देशवासियों के प्रति प्यार कभी-कभी हमें अहिंसा के सिद्धान्त से
हटने के लिए और बल का प्रयोग करने के लिए बाध्य कर सकता है। मैं कभी यह नहीं मान सकता कि
किसी आक्रमण का सशस्त्र प्रतिरोध कभी गलत या अन्यायपूर्ण भी हो सकता है। प्रतिरोध करने और
यदि सम्भव हो तो ऐसे शत्रु को बलपूर्वक वश में करने को मैं एक धार्मिक और नैतिक कर्तव्य मानता हूँ।

(रामायण में) राम ने विराट युद्ध में रावण को मारा और सीता को मुक्त कराया, (महाभारत में) कृष्ण ने कंस को मारकर
उसकी निर्दयता का अन्त किया और अर्जुन को अपने अनेक मित्रों एवं सम्बंधियों, जिनमें पूज्य भीष्म भी शामिल थे,
के साथ भी लड़ना और उनको मारना पड़ा, क्योंकि वे आक्रमणकारियों का साथ दे रहे थे। यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि
महात्मा गाँधी ने राम, कृष्ण और अर्जुन को हिंसा का दोषी ठहराकर मानव की सहज प्रवृत्तियों के साथ विश्वासघात किया था।

                                                  सभी अभियुक्तों का एक साथ लिया हुआ दुर्लभ चित्र


अधिक आधुनिक इतिहास में छत्रपति शिवाजी ने अपने वीरतापूर्ण संघर्ष के द्वारा ही पहले भारत में मुस्लिमों के अन्याय
को रोका और फिर उनको समाप्त किया। शिवाजी द्वारा अफजल खाँ को काबू करना और उसका वध करना अत्यन्त आवश्यक
था, अन्यथा उनके अपने प्राण चले जाते। इतिहास के इन विराट योद्धाओं जैसे शिवाजी, राणा प्रताप और गुरु गोविन्द सिंह
की निन्दा ‘दिग्भ्रमित देशभक्त’ कहकर करने से गाँधीजी ने केवल अपनी आत्म-केन्द्रीयता को ही प्रकट किया था। वे एक
दृढ़ शान्तिप्रेमी मालूम पड़ सकते हैं, लेकिन वास्तव में वे लोकविरुद्ध थे, क्योंकि वे देश में सत्य और अहिंसा के नाम पर
अकथनीय दुर्भाग्य की स्थिति बना रहे थे, जबकि राणा प्रताप, शिवाजी एवं गुरु गोविन्द सिंह स्वतंत्रता दिलाने के लिए
अपने देशवासियों के हृदय में सदा पूज्य रहेंगे।

उनकी 32 वर्षों तक उकसाने वाली गतिविधियों के बाद पिछले मुस्लिम-परस्त अनशन से मैं इस निष्कर्ष
पर पहुँचने को बाध्य हुआ था कि गाँधी के अस्तित्व को अब तत्काल मिटा देना चाहिए।
गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में वहाँ के भारतीय
समुदाय के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए अच्छा कार्य किया, लेकिन जब वे अन्त में भारत लौटे, तो उन्होंने
एक ऐसी मानसिकता विकसित कर ली जिसके अन्तर्गत अन्तिम रूप से वे अकेले ही किसी बात को सही या गलत तय करने
लगे। यदि देश को उनका नेतृत्व चाहिए, तो उसको उनको सर्वदा-सही मानना पड़ेगा और यदि ऐसा न माना जाये, तो वे
कांग्रेस से अलग हो जायेंगे और अपनी अलग गतिविधियाँ चलायेंगे।  
ऐसी प्रवृत्ति के सामने कोई भी मध्यमार्ग नहीं हो सकता। या तो कांग्रेस उनकी
इच्छा के सामने आत्मसमर्पण कर दे और उनकी सनक, मनमानी, तत्वज्ञान तथा आदिम दृष्टिकोण
में स्वर-में-स्वर मिलाये अथवा उनके बिना काम चलाये। वे अकेले ही प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक वस्तु
के लिए निर्णायक थे।

                                                                सभी अभियुक्त अदालत में


नागरिक अवज्ञा आन्दोलन के पीछे प्रमुख मस्तिष्क थे, कोई अन्य उस आन्दोलन की तकनीक नहीं जान सकता था।
वे अकेले ही जानते थे कि कोई आन्दोलन कब प्रारम्भ किया जाये और कब उसे वापस लिया जाये। आन्दोलन चाहे
सफल हो या असफल, चाहे उससे अकथनीय आपदाएँ और राजनैतिक अपघात हों, लेकिन उससे उस महात्मा के
कभी-गलत-नहीं होने के गुण पर कोई अन्तर नहीं पड़ सकता। अपने कभी-गलत-न-होने की घोषणा के लिए उनका सूत्र था-
‘सत्याग्रही कभी असफल नहीं हो सकता’ और उनके अलावा कोई नहीं जानता कि ‘सत्याग्रही’ होता क्या है।

इस प्रकार महात्मा गाँधी अपने लिए जूरी और जज दोनों थे। इन बच्चों जैसे पागलपन और स्वेच्छाचारिता
के साथ अति कठोर आत्मसंयम, निरन्तर कार्य और उन्नत चरित्र ने मिलकर गाँधी को भयंकर रूप से उग्र
तथा निद्र्वन्द्व बना दिया था।
बहुत से लोग सोचते थे कि उनकी राजनीति विवेकहीन थी, पर या तो उन्हें कांगे्रेस को छोड़ना पड़ा या अपनी प्रतिभा
को गाँधी के चरणों में डाल देना पड़ा, जिसका वे कोई भी उपयोग कर सकते थे। ऐसी पूर्ण गैरजिम्मेदारी की स्थिति में
गाँधी भूल पर भूल, असफलता पर असफलता और आपदा पर आपदा पैदा करने के अपराधी थे। भारत की राष्ट्र भाषा के
प्रश्न पर गाँधी की मुस्लिमपरस्त नीति उनकी हड़बड़ीपूर्ण प्रवृत्ति के अनुसार ही है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि देश की प्रमुख
भाषा बनने के लिए हिन्दी का दावा सबसे अधिक मजबूत है। अपने राजनैतिक जीवन के प्रारम्भ में गाँधीजी हिन्दी को
बहुत प्रोत्साहन देते थे, लेकिन जैसे ही उनको पता चला कि मुसलमान इसे पसन्द नहीं करते, तो वे तथाकथित ‘हिन्दुस्तानी’
के पुरोधा बन गये। भारत में सभी जानते हैं
कि'हिन्दुस्तानी’ नाम की कोई भाषा नहीं है, इसका कोई व्याकरण नहीं है और न इसकी कोई शब्दावली है। यह केवल
एक बोली है, जो केवल बोली जाती है, लिखी नहीं जाती। यह हिन्दी और उर्दू की एक संकर या दोगली बोली है और
महात्मा गाँधी का मिथ्यावाद भी इसे लोकप्रिय नहीं बना सकता। लेकिन केवल मुस्लिमों को प्रसन्न करने की अपनी इच्छा
के अनुसार उनका आग्रह था कि केवल ‘हिन्दुस्तानी’ ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। हालांकि उनके अन्धभक्तों ने उनका
समर्थन किया और वह तथाकथित भाषा उपयोग की जाने लगी।

इस प्रकार मुस्लिमों को खुश करने के लिए हिन्दी भाषा के सौन्दर्य और शुद्धता के साथ बलात्कार किया गया।
उनके सारे प्रयोग केवल हिन्दुओं की कीमत पर किये जाते थे।

अगस्त 1946 के बाद मुस्लिम लीग की निजी सेनाओं ने हिन्दुओं का सामूहिक संहार प्रारम्भ किया। तत्कालीन वायसराय
लार्ड वैवेल ने इन घटनाओं से व्यथित होते हुए भी भारत सरकार कानून 1935 के अनुसार प्राप्त अपनी शक्तियों का उपयोग
बलात्कार, हत्या और आगजनी को रोकने के लिए नहीं किया। बंगाल से कराची तक हिन्दुओं का खून बहता रहा,
जिसका प्रतिरोध हिन्दुओं द्वारा कहीं-कहीं किया गया। सितम्बर में बनी अन्तरिम सरकार के साथ मुस्लिम लीग के सदस्यों
द्वारा प्रारम्भ से ही विश्वासघात किया गया, लेकिन सरकार के साथ, जिसके वे अंग थे, जितने अधिक राजद्रोही और विश्वासघाती
होते जाते थे, उनके प्रति गाँधी का मोह उतना ही बढ़ता
चला जाता था। लार्ड वैवेल को त्यागपत्र देना पड़ा, क्योंकि वे इस समस्या को हल नहीं कर सके और उनकी जगह
लार्ड माउंटबेटन आये, जैसे नागनाथ की जगह साँपनाथ आये हों ।


                                                                    सभी अभियुक्त अदालत में 


कांग्रेस ने, जो अपनी देशभक्ति और समाजवाद का दम्भ किया करती थी, गुप्त रूप से बन्दूक की नोंक पर
पाकिस्तान को स्वीकार कर लिया और जिन्ना के सामने नीचता से आत्मसमर्पण कर दिया। भारत के टुकड़े कर
दिये गये और 15 अगस्त 1947 के बाद देश का एक-तिहाई भाग हमारे लिए विदेशी भूमि हो गयी।

कांग्रेस में लार्ड माउंटबेटन को भारत का सबसे महान् वायसराय और गवर्नरजनरल बताया जाता है। सत्ता के हस्तांतरण की
आधिकारिक तिथि 30 जून 1948 तय की गयी थी, परन्तु माउंटबेटन ने अपनी निर्दयतापूर्ण चीरफाड़ के बाद हमें 10 महीने
पहले ही विभाजित भारत दे दिया। गाँधी को अपने तीस वर्षों की निर्विवाद तानाशाही के बाद यही प्राप्त हुआ और यही है जिसे
कांग्रेस ‘स्वतंत्रता’ और ‘सत्ता का शान्तिपूर्ण हस्तांतरण’ कहती है।
हिन्दू-मुस्लिम एकता का बुलबुला अन्ततः फूट गया और नेहरू तथा उनकी भीड़ की स्वीकृति के साथ ही एक
धर्माधारित राज्य बना दिया गया। इसी को वे ‘बलिदानों द्वारा जीती गयी स्वतंत्रता’ कहते हैं। किसका बलिदान?
जब कांगरेस के शीर्ष नेताओं ने गाँधी की सहमति से इस देश को काट डाला, जिसे हम पूजा की वस्तु मानते हैं,
तो मेरा मस्तिष्क भयंकर क्रोध से भर गया।
गाँधी ने अपने आमरण अनशन को तोड़ने के लिए जो शर्तें रखी थीं, उनमें एक दिल्ली में हिन्दू शरणार्थियों द्वारा घेरी गयी
मस्जिदों को खाली करने से सम्बंधित थी। परन्तु जब पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हिंसक आक्रमण किये गये, तब उन्होंने उसके
विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोला और पाकिस्तान सरकार अथवा सम्बंधित मुसलमानों को इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया।
गाँधी इतने चतुर तो थे ही कि वे जानते थे कि यदि उन्होंने अपना आमरण अनशन तोड़ने के लिए पाकिस्तान मुसलमानों पर
कोई शर्त रखी, तो उनको शायद ही कोई मुसलमान ऐसा मिलेगा जो उनकी जिन्दगी की जरा भी चिन्ता करेगा, भले ही
आमरण अनशन में उनके प्राण चले जायें।
इसी कारण उन्होंने अनशन तोड़ने के लिए जानबूझकर मुस्लिमों पर कोई शर्त नहीं लगायी। वे अपने अनुभव से अच्छी तरह
जानते थे कि जिन्ना उनके अनशन से बिल्कुल भी विचलित या प्रभावित नहीं थे और मुस्लिम लीग गाँधी की आत्मा की
आवाज का कोई मूल्य नहीं समझती।


                                                         बटवारें के समय हुई मार काट के बाद की तस्वीर


गाँधी को ‘राष्ट्र पिता’ कहा जा रहा है। यदि ऐसा है तो वे अपने पिता जैसे कर्तव्य को निभाने में पूर्णतः असफल रहे,
क्योंकि उन्होंने उसके विभाजन की स्वीकृति देकर उसके साथ विश्वासघात किया। मैं साहसपूर्वक कहता हूँ
कि गाँधी अपने कर्तव्य में असफल हो गये। उन्होंने स्वयं को ‘पाकिस्तान का पिता’ होना सिद्ध किया। उनकी
अन्दर की आवाज, उनकी आत्मिक शक्ति, उनका अहिंसा का सिद्धान्त, जिनसे वे बने थे, सभी जिन्ना की लौह-इच्छा के
सामने चरमरा गयी और वे शक्तिहीन सिद्ध हुए। संक्षेप में, मैंने स्वयं विचार किया और समझ गया कि यदि मैं गाँधी को मार
दूँगा, तो मैं पूरी तरह नष्ट हो जाऊँगा, लोगों से मुझे केवल घृणा ही मिलेगी और मैं अपना सारा सम्मान खो दूँगा, जो कि
मेरे लिए जीवन से भी अधिक मूल्यवान है। लेकिन, इसके साथ ही मैंने यह भी अनुभव किया कि गाँधीजी के बिना भारत की
राजनीति अधिक व्यावहारिक तथा प्रतिरोधक्षम होगी तथा सशस्त्र सेनाएँ भी अधिक बलशाली होंगी। निस्संदेह मेरा अपना
भविष्य पूरी तरह खण्डहर हो जाएगा, लेकिन राष्ट्र पाकिस्तान के आक्रमणों से बच जाएगा। लोग भले ही मुझे मूर्ख या
पागल कहेंगे, लेकिन राष्ट्र उस रास्ते पर बढ़ने के लिए स्वतंत्र हो जाएगा, जिसको मैं सुदृढ़ राष्ट्र-निर्माण के लिए आवश्यक
समझता हूँ।
इस प्रश्न पर पूरी तरह विचार करने के बाद, मैंने इस सम्बंध में अन्तिम निर्णय कर लिया, लेकिन मैंने इस बारे में किसी से
भी कोई बात नहीं की। मैंने अपने दोनो हाथों में साहस भरा और 30 जनवरी 1948 को बिरला हाउस के प्रार्थना स्थल पर
गाँधीजी के ऊपर गोलियाँ दाग दीं।  
मैं कहता हूँ कि मेरी गोलियाँ एक ऐसे व्यक्ति पर चलायी गयी थीं, जिसकी नीतियों और कार्यों से करोड़ों
हिन्दुओं को केवल बरबादी और विनाश ही मिला। ऐसी कोई कानूनी प्रक्रिया नहीं थी जिसके अन्तर्गत उस
अपराधी को सजा दिलायी जा सकती और इसीलिए मैंने वे घातक गोलियाँ चलायीं।
मुझे व्यक्तिगत रूप से किसी भी व्यक्ति से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन मैं कहता हूँ कि मेरे मन में इस वर्तमान सरकार के
प्रति कोई सम्मान नहीं है, जिसकी नीतियाँ अन्याय की हद तक मुसलमानों के प्रति अनुकूल हैं। लेकिन इसके साथ ही मैं
यह भी स्पष्ट अनुभव करता हूँ कि ये नीतियाँ पूरी तरह गाँधीजी की उपस्थिति के कारण बनी थीं।
मैं बहुत खेद के साथ कहना चाहता हूँ कि
प्रधानमंत्री नेहरू भूल जाते हैं कि उनके उपदेश और कार्य कई बार
एक दूसरे के प्रतिकूल होते हैं, जब इधर-उधर वे कहते हैं कि भारत एक पंथनिरपेक्ष राज्य है, क्योंकि यह
ध्यान रखना आवश्यक है कि पाकिस्तान के पंथधारित देश की स्थापना में नेहरू ने प्रमुख भूमिका निभायी
थी और उनका कार्य गाँधीजी द्वारा लगातार मुस्लिमों का तुष्टीकरण करने की नीति द्वारा सरल बन गया था।

मैंने जो भी किया है उसकी पूरी जिम्मेदारी लेते हुए मैं अब अदालत के सामने खड़ा हूँ और निश्चय जी न्यायाधीश ऐसा आदेश
पारित करेंगे, जो मेरे कार्य के लिए उचित होगा। लेकिन मैं यह अवश्य कहना चाहता हूँ कि मैं अपने ऊपर कोई दया नहीं
चाहता और न मैं यह चाहता हूँ कि कोई अन्य मेरे लिए किसी से कोई दया-याचना करे।
अपने कार्य के नैतिक पक्ष पर मेरा विश्वास सभी ओर से की गयी मेरी आलोचनाओं से किंचित भी विचलित
नहीं हुआ है। मुझे कोई सन्देह नहीं है कि इतिहास के ईमानदार लेखक मेरे कार्य का वजन तौलकर भविष्य
में किसी दिन इसका सही मूल्यांकन करेंगे।
जय हिन्द।


                                   गाँधी जयंती पर विशेष




सत्तर वर्ष का कोई महापुरुष किसी कमसिन लड़की के साथ एकांत में ब्रह्मचर्य प्रयोग की इच्छा रखे, और ताउम्र रखे रहे, यह कैसी बात है? ऐसा प्रस्ताव पाकर कौन लड़की नहीं सहमेगी? (उन सभी तस्वीरों को ध्यान से देखें जिनमें गाँधी दो युवतियों के कंधों पर एक-एक हाथ रखे हुए चले आ रहे हैं। मुख-मुद्राएं हमेशा कुछ कहती हैं।) फिर, कौन अपनी लड़की के साथ ऐसे प्रयोग करने की अनुमति स्वेच्छा से देगा? क्या गाँधी के बेटों ने भी दिया था? ऐसे प्रश्नों का उत्तर अप्राप्य नहीं है। वास्तव में इन उत्तरों को दबा दिया गया है। कई तथ्य स्वयं गाँधी के लेखन में हैं, किन्तु उन्हें विचार के लिए रखने मात्र से आपत्ति की जाती है।

गाँधीजी ने किसी भारतीय गुरू से कोई धर्म-चिंतन, योग या दर्शन की शिक्षा नहीं ली। (गोखले को उन्होंने अपना गुरू कहा, मगर किस बात में, यह स्पष्ट नहीं। क्योंकि गोखले ने ही हिन्द स्वराज को हल्की, फूहड़ रचना कहा था। यदि गोखले वास्तव में गुरू होते, तो फिर उस पुस्तिका को फेंक देना या आमूल सुधारना जरूरी था। वह गाँधी ने नहीं किया।) गीता या रामायण की शिक्षाओं पर भी गाँधी ने अपने ही मत को सर्वोपरि माना। कुल मिला कर गाँधी के जाने-माने गुरू रस्किन या टॉल्सटॉय ही रहे हैं। किन्तु क्या गाँधी टॉल्सटॉय की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं? न केवल अहिंसा, बल्कि काम-भावना पर भी।
ब्रह्मचर्य लेने के बाद भी वर्षों, दशकों, बल्कि जीवन-पर्यंत ब्रह्मचर्य की ‘जाँच’ करते रहने के प्रयोग की कैफियत क्या है?

यदि निरादर के नाम पर तथ्यों, विश्लेषणों को प्रतिबंधित करना पड़े तब गाँधीजी के पौत्र राजमोहन गाँधी द्वारा लिखित मोहनदास (2007) पर भी प्रतिबन्ध लग जाना चाहिए। इसमें सरलादेवी चौधरानी और गाँधीजी के प्रेम-संबंध बनने से लेकर टूटने तक वर्षों की कहानी है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की भतीजी सरलादेवी विवाहिता थीं, जब गाँधीजी उन पर लट्टू हो गए। यह 1919-20 की बात है, जब गाँधी लाहौर में सरलादेवी के घर पर टिके। उस समय उनके पति कांग्रेस नेता रामभज दत्त जेल में थे। गाँधी और सरलादेवी अनेक जगह साथ-साथ गए। बाद में गाँधी ने उन्हें रस में पगे पत्र लिखे। राजमोहन के अनुसार गाँधी के उस प्रेम में ‘हल्का कामुक’ भाव भी था। राजमोहन ने यह भी लिखा है कि वह काल गाँधीजी की पत्नी कस्तूरबा के लिए अत्यंत यंत्रणा भरा था। जब गाँधी-सरलादेवी सम्बन्ध पर चारो तरफ से ऊँगलियाँ उठीं, तो गाँधीजी ने इसे सरलादेवी के साथ अपना ‘आध्यात्मिक विवाह’ बताया जिसमें “दो स्त्री पुरूष के बीच ऐसी सहभागिता है जहाँ शरीरी तत्व का कोई स्थान न था”। हालाँकि ‘विवाह’ शब्द ही चुगली कर देता है कि गाँधीजी स्त्री-पुरुष के विशिष्ट संबंध में ही आसक्त हुए थे। स्वयं राजमोहन गाँधी ने भी ‘आध्यात्मिक विवाह’ जैसे मुहावरे का अर्थ देने से छुट्टी ले ली है, यह कह कर कि “इस का जो भी अर्थ हो”।

अंततः, गाँधीजी पर दबाव डालकर सरलादेवी से संबंध तोड़ने में उनके बेटे देवदास, कस्तूरबा, सचिव महादेव भाई तथा सी. राजगोपालाचारी जैसे कई निकट सहयोगियों, आदि द्वारा किए गए समवेत प्रयास का योगदान था। वस्तुतः गाँधीजी के पूरे जीवन पर दृष्टि डालें तो सन् 1906 से लेकर जीवन के लगभग अंत तक, ‘ब्रह्मचर्य’ व्रत धारण किए रखने और साथ ही साथ स्त्रियों, लड़कियों के साथ विविध प्रयोग करते रहने के प्रति उन की आसक्ति की कोई आसान व्याख्या नहीं हो सकती। यह गाँधीजी की भावनात्मक दुर्बलता का ही संकेत अधिक करती है। अप्रैल-जून 1938 के बीच प्यारेलाल, सुशीला नायर, मीरा बेन, और अनेक लोगों को लिखे अपने दर्जनों पत्रों और नोट में गाँधी ने इसे स्वयं स्वीकार किया है। बल्कि कई बार ऐसे शब्दों में स्वीकार किया है कि भक्त गाँधीवादियों को धक्का लग सकता है।

राजमोहन गाँधी की पुस्तक उन्हीं कारणों से चर्चित हुई थी। उस में गाँधी एक क्रूर, तानाशाह पति, लापरवाह पिता, मनमानी करने वाले आश्रम-प्रमुख, और विवाहेतर प्रेम-संबंधों में पड़ने वाले व्यक्ति के रूप में भी दिखाए गए हैं। गाँधी कभी भरपूर कामुकता से पत्नी के साथ व्यवहार करते थे, तो कभी एकतरफा रूप से शारीरिक-संबंध विहीन दांपत्य रखते थे। कभी दूसरी स्त्रियों के प्रति गहन राग प्रदर्शित करते थे। अथवा कुँवारी लड़कियों के साथ अपने कथित ब्रह्मचर्य संबंधी प्रयोग करने लगते थे। यह सब जीवन-पर्यंत चला। गाँधीजी के निकट सहयोगी और विद्वान राजगोपालाचारी ने कहा भी था कि, “अब कहा जाता है कि गाँधी ऐसे जन्मजात पवित्र थे कि उनमें ब्रह्मचर्य के प्रति सहज झुकाव था। पर वास्तव में वह काम-भाव से बहुत उलझे हुए थे।”

इसीलिए, राजमोहन ने भी यही कहा था कि वह गाँधीजी को मनुष्य के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, किसी महात्मा जैसा नहीं। अर्थात्, ‘मोहनदास’ में भी मानवोचित कमजोरियाँ थीं। वस्तुतः मीरा बेन ने तो इतने कठोर शब्दों में गाँधीजी की लड़कियों को निकट रखने, उनसे शरीर की मालिश करवाने जैसी विविध अंतरंग सेवाए लेने, और अन्य आसक्ति की भर्त्सना की, बार-बार की, उन्हें बरजा, कि गाँधीजी को तरह-तरह से सफाई देनी पड़ी। मगर गाँधी ने मीरा बेन, आश्रमवासियों और अन्य की सलाह नहीं मानी। यह कहकर कि जो काम वे पिछले चालीस वर्ष से कर रहे हैं, वह करते रहेंगे, क्योंकि ‘जरूर यही ईश्वर की इच्छा होगी, तभी तो वह इतने सालों से यह कर रहे’ हैं! इससे अधिक विचित्र तर्क, या कुतर्क नहीं हो सकता। यद्यपि यह कथन भी पूर्ण सत्य नहीं है। गाँधी की आत्मकथा 1926 में लिखी गई थी। उस में ऐसी आदतों की कोई चर्चा नहीं है, जिसे 1938 में गाँधी ‘चालीस साल पुरानी’ बताकर अपना बचाव करते हैं।

निस्संदेह, सैद्धांतिक विश्लेषण के लिए यह रोचक विषय है। गाँधी जी की काम-भावना संबंधी दिलचस्पी पर अनेक विद्वानों ने लिखा है। जैसे, निर्मल कुमार बोस (माइ डेज विद गाँधी, 1953, अब ओरिएंट लॉगमैन द्वारा प्रकाशित), एरिक एरिकसन (गाँधीज ट्रुथ, डब्ल्यू डब्ल्यू नॉर्टन, 1969), लैपियर और कॉलिन्स (फ्रीडम एट मिडनाइट, साइमन एंड शूस्टर, 1975), वेद मेहता (महात्मा गाँधी एंड हिज एपोस्टल्स, वाइकिंग, 1976), सुधीर कक्कड़ (मीरा एंड द महात्मा, पेंग्विन, 2004), जैड एडम्स (गाँधीः नेकेड एम्बीशन, क्वेरकस, 2010) आदि। इन लेखकों में एरिकसन, लैपियर-कॉलिन्स, बोस, मेहता तथा कक्कड़ अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान रहे हैं। इन में से किसी को दूर से भी सनसनी-खेज, बाजारू या क्षुद्र लेखक नहीं कहा जा सकता।

गाँधीजी के उन प्रयोगों के सिलसिले में सरलादेवी ही नहीं, सरोजिनी नायडू, सुशीला नायर, सुचेता कृपलानी, प्रभावती, अमतुस सलाम, लीलावती, मनु, आभा, आदि कई नाम आते हैं। लड़कियों और स्त्रियों के समक्ष गाँधी आकर्षक रूप में आते थे। उन्हें तरह-तरह के प्रयोग करने के लिए तैयार करते थे। जैसे, बिना एक-दूसरे को छुए निर्वस्त्र होकर साथ सोना या नहाना। घोषित रूप से कभी इस का उद्देश्य होता था ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ तो कभी ‘ब्रह्मचर्य-शक्ति बढ़ाने’ का प्रयास। सुशीला नायर के अनुसार पहले तो ऐसे सभी कार्यों को प्राकृतिक चिकित्सा ही कहा जाता था। जब आश्रम में आवाजें उठने लगीं तो ब्रह्मचर्य प्रयोग कहकर आलोचनाओं को शांत किया गया। हालाँकि, नायर ने उन प्रयोगों में कुछ गलत नहीं कहा है। इन्ही रूपों में 77 वर्ष के गाँधीजी अपनी दूर के रिश्ते की 17 वर्षीया पौत्री को नग्न होकर अपने साथ सोने के लिए तैयार करते थे। इन बातों पर उनकी दलीलें प्रायः विचित्र और अंतर्विरोधी भी होती थीं। ऐसे प्रसंगों में गाँधी को एक ही समय अलग-अलग व्यक्तियों को अलग-अलग दलीलें देते पाया जा सकता है। इसीलिए इन सब बातों का संपूर्ण विवरण रखकर उनकी कोई ऐसी व्याख्या देना संभव नहीं, जिससे महात्मा की छवि यथावत् रह सके।

अपनी आत्मकथा (1925) में भी गाँधीजी ने ‘ब्रह्मचर्य’ पर दो अध्याय लिखे हैं। अन्य अध्यायो में भी इस विषय को जहाँ-तहाँ स्थान दिया। इसी में यह सूचना है कि 1906 ई. में ही गाँधी ने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया था, और बहुत विचार-विमर्श के बाद लिया गया था। विचित्र यह कि इस विमर्श में पत्नी को शामिल नहीं किया गया! फिर, वहीं यह भी लिखा है कि ‘जननेन्द्रिय’ पर संपूर्ण नियंत्रण करने में ‘आज भी’ कठिनाई होती है। यह ब्रह्मचर्य व्रत लेने के बीस वर्ष बाद, और 56 वर्ष की आयु में लिखा गया था।

फिर जून 1938 में भी गाँधीजी ने ‘ब्रह्मचर्य’ पर एक लेख लिखा था। इसे उनके अनुयायियों ने दबाव डाल कर छपने नहीं दिया। उसमें 7 अप्रैल को देखा गया ‘खराब स्वप्न’ तथा ‘14 अप्रैल की घटना’, जब गाँधी का अनचाहे वीर्य-स्खलन हो गया था, इन घटनाओं पर गाँधी बहुत हाय-तौबा मचाते हैं। दो महीने से अधिक समय तक अनेक लोगों को लिखे पत्रों में उस की चर्चा करते हैं। विशेषकर महिला मित्रों और सहयोगियों को, जैसे राजकुमारी अमृत कौर, सुशीला नायर, मीरा बेन, आदि। उनसे अपने तौर-तरीके में ‘परिवर्तन’ पर विचार करते हैं, सुझाव माँगते हैं। यह शंका भी व्यक्त करते हैं कि स्त्रियों के संसर्ग में रहने से ही तो वह घटनाएं नहीं हुईं?

वस्तुतः स्वतंत्र भारत में गाँधी-नेहरू के बारे में एकदम आरंभ से ही एक देवतुल्य छवि देने की गलत परंपरा बनाई गई है। गाँधीजी की हत्या के कारण देश को लगे धक्के से ऐसा करना बड़ा आसान हो गया। उस से पहले तक गाँधीजी, और उनके विविध राजनीतिक, गैर-राजनीतिक, निजी कार्यों के प्रति आलोचना के तीखे स्वर प्रायः खुलकर सुने जाते थे। यह स्वर उनके निकट सहयोगियों से लेकर बड़े-बड़े मनीषियों के थे। गाँधीजी की हत्या से उपजी सहानुभूति में इन स्वरों का अनायास लोप हो गया। उस वातावरण का लाभ उठाकर व्यवस्थित प्रचार और बौद्धिक कारसाजी ने आने वाली पीढियों के लिए गाँधी-नेहरू की एक रेडीमेड छवि बनाई। कुछ-कुछ सोवियत दौर के पूर्वार्द्ध वाले ‘लेनिन-स्तालिन’ जैसी। सत्ताधारी दल और उसके नेतृत्व ने इस का अपने हित में कई तरह से राजनीतिक उपयोग भी किया।