मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

‪PVC‬ मेजर शैतान सिंह भाटी

इससे पहले इतने ठण्ड़े इलाके में हमारी सेना तैनात नहीं हुई थी । पर जब १९६२ में भारत पर चीन ने आक्रमण किया तो उसी का जवाब देने के लिए मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में ११९ सैनिको ने रेजांग ला दर्रे पर मोर्चा संभाला ।
हमारे पास द्वीतीय विश्व युद्ध में बेकार घोषित की गई राइफलें थी, जो एक बार में एक गोली छोड़ती थी । महज ३००-४०० राउण्ड़ गोलियाँ और लगभग १००० हथगोले थे ।
वहीं चीनी सेना के २००० अनुभवी सैनिक, ऑटोमेटिक राइफले और आधुनिक हथियार ।
भारत सरकार ने तो अपनी असमर्थता जताते हुए मेजर को अपने कदम पीछे खिंचने को कह दिया था पर मेजर ने ऐसा नहीं किया उस समय शायद उनके दिल में यहीं पंक्तियाँ होगी -

"वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है
सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तिहाँ होगा "



भारत के एक-एक सैनिक ने दस-दस, बीस-बीस चीनी सैनिको को मारा । हमारे ११४ सैनिको ने शहादत दे दी और चीन के १८०० सैनिको को मार गिराया । ज़िंदा बचे २०० चीनी सैनिक भारतीय सैनिको के सम्मान स्वरूप अपनी रायफलें उल्टी गाड़ कर उस पर अपनी टोपियाँ रख गए ।
मेजर द्वारा जिन्दा बचे सैनिको को संदेश वाहक के रूप में सरकार के पास भेजा गया जिन्होने सरकार को इस पुरे घटनाक्रम की जानकारी दी ।
युद्ध के तीन महीनों बाद उनके परिजनों के आग्रह और बर्फ पिघलने के बाद सेना के जवान रेडक्रोस सोसायटी के साथ उनके शव की तलाश में जुटे और गडरियों की सुचना पर जब उस चट्टान के पास पहुंचे तब भी मेजर शैतान सिंह की लाश अपनी एल.एम.जी गन के साथ पोजीशन लिये वैसे ही मिली जैसे मरने के बाद भी वे दुश्मन के दांत खट्टे करने को तैनात है।
मेजर के शव के साथ ही उनकी टुकड़ी के शहीद हुए ११४ सैनिकों के शव भी अपने अपने हाथों में बंदूक व हथगोले लिये पड़े थे, लग रहा था जैसे अब भी वे उठकर दुश्मन से लोहा लेने को तैयार है।

और जैसे हर शहीद के मूँह से बस यही पंक्तियाँ निकल रहीं हों -
"यदि देश हित मरना पड़े मुझ को सहस्त्रों बार भी ।
तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाउं कभी ।।
हे ईष भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो ।
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो ।।"

जय हिन्द
जय भारत

"मेरा वतन यूं ही आबाद रहे, मेरे लहु की आखिरी बूंद तक ।"

सोमवार, 25 अगस्त 2014

भाजपा नेताओं के रिश्ते मुस्लिमो से..जाने सच्चाई

आजकल आपीए और कांग्रेसी एक प्रोपेगेंडा फैलाते है ... 
जिसमे लिखा होता है फलाने बीजेपी नेता की बेटी ने मुस्लिम से शादी की है ... 





आप सच्चाई जाने 

1--अशोक सिंघल जी ने शादी नहीं की है वे ब्रह्मचारी है....उनकी कोई ओलाद नहीं है...फिर अशोक सिंघल जी की बेटी की शादी किसी मुस्लिम से होने का कोई सवाल ही पैदा नही होता ..

2...मुख्तार अब्बास नकवी की बीबी का नाम सीमा नकवी है जो एक साधारण हिन्दू पिता और मुस्लिम माँ की सन्तान है ..

आपियो का झूट3--मुरली मनोहर बेटी की शादी एक मुस्लिम से हुई है ... महाझूठ ....जोशी जी की बेटी कि शादी अलाहाबाद के हिन्दू घराने में हुई है

4....शहनवाज हुसैन की पत्नी एक हिन्दू रेनू शर्मा है जो एक प्रसिद्द टीचर है और उन्होंने इस्लाम कुबूल नही किया है आज भी उनके घर हिन्दू त्योहार मनाये जाते है

5--झूठ नम्बर पांच ---नरेंद्र मोदी जी की भतीजी की शादी एक मुस्लिम से हुई है ... हा हा हा ये केजरू खुद तो झूठा है और अपने समर्थको को झूठ फ़ैलाने की प्रेरणा देता है .. मोदी जी की सिर्फ दो भतीजीओ की शादी हुई है और दोनों के पति एक साधारण हिन्दू है

6--लाल कृष्णा अडवानी की बेटी ने नहीं बल्कि उनके बड़े भाई की बेटी यानी भतीजी ने अपनी दूसरी शादी प्रेम विवाह के रूप में मुल्ले से की थी... फिर सात महीने के बाद तलाक हो गया

7--सुब्रमन्यम स्वामी जी की लड़की ने अवश्य प्रेम विवाह किया मुस्लिम से ... सुहासिनी स्वामी लन्दन में पढती थी और वही पूर्व विदेश सचिव सलमान हैदर का बेटा नदीम हैदर भी पढ़ता था .. और दोनों में प्रेम हो गया ...मगर उसने इस्लाम कबूल नहीं किया है....आज भी उनकी लडकी एक हिन्दू धर्म को मानती है और अपने पति को भी हिन्दू बना चुकी हैशादी Civil Marriage Boston,US में हुवी फिर भारत में Re-Register हुवा उनको एक बेटा है प्रतीक नामक....जिसे धर्म आज तक हिन्दू धर्म है और उसका आज तक खतना भी नहीं हुआ है!

8--बाला साहेब ठाकरे जी की पोती ने किसी मुस्लिम से शादी नहीं की बल्कि एक गुजराती लोहाना परिवार में शादी हुई गई है...सामना के सम्पादक प्रेम शुक्ल ने कई बार उस लडके के पुरे खानदान का विवरण दे चुके है ... .असल में सबसे पहले एक पाकिस्तानी अख़बार और टीवी चैनेल ने ये झूठ चलाया फिर बिना सच्चाई जाने भारत के कुछ बेबपोर्टल और आम आदमी पार्टी के नेता इस झूठ को फ़ैलाने लगे ... उसी चैनेल ने कुछ समय पहले खबर दिया था की गायक हंस राज हंस ने इस्लाम कुबूल कर लिया है .. जबकि हंस राज हंस ने कहा की वो एक कट्टर सिख है और उनके बारे में झूठी खबर फैलाई गयी है

मित्रो, ये दोगले आम आदमी पार्टी के बीस हजारी ई नरेगा वाले मजदूरो का जन्म किसी हिन्दू वीर्य से नही हुआ है वरना ये दोगले बिना सच्चाई जाने इस झूठ की नही फैलाते..

इस सच्चाई को अधिक से अधिक शेयर करे...


मुसलमानो की चालाकी

जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक मौलाना मौदूदी कहते हैं कि कुरान के अनुसार विश्व दो भागों में बँटा हुआ है, एक वह जो अल्लाह की तरफ़ हैं और दूसरा वे जो शैतान की तरफ़ हैं। देशो की सीमाओं को देखने का इस्लामिक नज़रिया कहता है कि विश्व में कुल मिलाकर सिर्फ़ दो खेमे हैं, पहला दार-उल-इस्लाम (यानी मुस्लिमों द्वारा शासित) और दार-उल-हर्ब (यानी “नास्तिकों” द्वारा शासित)। उनकी निगाह में नास्तिक का अर्थ है जो अल्लाह को नहीं मानता, क्योंकि विश्व के किसी भी धर्म के भगवानों को वे मान्यता ही नहीं देते हैं।

इस्लाम सिर्फ़ एक धर्म ही नहीं है, असल में इस्लाम एक पूजापद्धति तो है ही, लेकिन उससे भी बढ़कर यह एक समूची “व्यवस्था” के रूप में मौजूद रहता है। इस्लाम की कई शाखायें जैसे धार्मिक, न्यायिक, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सैनिक होती हैं। इन सभी शाखाओं में सबसे ऊपर, सबसे प्रमुख और सभी के लिये बन्धनकारी होती है धार्मिक शाखा, जिसकी सलाह या निर्देश (बल्कि आदेश) सभी धर्मावलम्बियों को मानना बाध्यकारी होता है। किसी भी देश, प्रदेश या क्षेत्र के “इस्लामीकरण” करने की एक प्रक्रिया है। जब भी किसी देश में मुस्लिम जनसंख्या एक विशेष अनुपात से ज्यादा हो जाती है तब वहाँ इस्लामिक आंदोलन शुरु होते हैं। शुरुआत में उस देश विशेष की राजनैतिक व्यवस्था सहिष्णु और बहु-सांस्कृतिकवादी बनकर मुसलमानों को अपना धर्म मानने, प्रचार करने की इजाजत दे देती है, उसके बाद इस्लाम की “अन्य शाखायें” उस व्यवस्था में अपनी टाँग अड़ाने लगती हैं। इसे समझने के लिये हम कई देशों का उदाहरण देखेंगे, आईये देखते हैं कि यह सारा “खेल” कैसे होता है

जब तक मुस्लिमों की जनसंख्या किसी देश/प्रदेश/क्षेत्र में लगभग 2% के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसन्द अल्पसंख्यक बनकर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते, जैसे -
अमेरिका – मुस्लिम 0.6%
ऑस्ट्रेलिया – मुस्लिम 1.5%
कनाडा – मुस्लिम 1.9%
चीन – मुस्लिम 1.8%
इटली – मुस्लिम 1.5%
नॉर्वे – मुस्लिम 1.8%

जब मुस्लिम जनसंख्या 2% से 5% के बीच तक पहुँच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलम्बियों में अपना “धर्मप्रचार” शुरु कर देते हैं, जिनमें अक्सर समाज का निचला तबका और अन्य धर्मों से असंतुष्ट हुए लोग होते हैं, जैसे कि –
डेनमार्क – मुस्लिम 2%
जर्मनी – मुस्लिम 3.7%
ब्रिटेन – मुस्लिम 2.7%
स्पेन – मुस्लिम 4%
थाईलैण्ड – मुस्लिम 4.6%

मुस्लिम जनसंख्या के 5% से ऊपर हो जाने पर वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलम्बियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना “प्रभाव” जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिये वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर “हलाल” का माँस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि “हलाल” का माँस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यतायें प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में “खाद्य वस्तुओं” के बाजार में मुस्लिमों की तगड़ी पैठ बनी। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्केट के मालिकों को दबाव डालकर अपने यहाँ “हलाल” का माँस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी “धंधे” को देखते हुए उनका कहा मान लेता है (अधिक जनसंख्या होने का “फ़ैक्टर” यहाँ से मजबूत होना शुरु हो जाता है), ऐसा जिन देशों में हो चुका वह हैं –
फ़्रांस – मुस्लिम 8%
फ़िलीपीन्स – मुस्लिम 6%
स्वीडन – मुस्लिम 5.5%
स्विटजरलैण्ड – मुस्लिम 5.3%
नीडरलैण्ड – मुस्लिम 5.8%
त्रिनिदाद और टोबैगो – मुस्लिम 6%

इस बिन्दु पर आकर “मुस्लिम” सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके “क्षेत्रों” में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाये (क्योंकि उनका अन्तिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व “शरीयत” कानून के हिसाब से चले)। जब मुस्लिम जनसंख्या 10% से अधिक हो जाती है तब वे उस देश/प्रदेश/राज्य/क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिये परेशानी पैदा करना शुरु कर देते हैं, शिकायतें करना शुरु कर देते हैं, उनकी “आर्थिक परिस्थिति” का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़फ़ोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ़्रांस के दंगे हों, डेनमार्क का कार्टून विवाद हो, या फ़िर एम्स्टर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवाद को समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है, जैसे कि –
गुयाना – मुस्लिम 10%
भारत – मुस्लिम 15%
इसराइल – मुस्लिम 16%
केन्या – मुस्लिम 11%
रूस – मुस्लिम 15% (चेचन्या – मुस्लिम आबादी 70%)

जब मुस्लिम जनसंख्या 20% से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न “सैनिक शाखायें” जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरु हो जाता है, जैसे-
इथियोपिया – मुस्लिम 32.8%

जनसंख्या के 40% के स्तर से ऊपर पहुँच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याऐं, आतंकवादी कार्रवाईयाँ आदि चलाने लगते हैं, जैसे –
बोस्निया – मुस्लिम 40%
चाड – मुस्लिम 54.2%
लेबनान – मुस्लिम 59%

जब मुस्लिम जनसंख्या 60% से ऊपर हो जाती है तब अन्य धर्मावलंबियों का “जातीय सफ़ाया” शुरु किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोड़ना, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है, जैसे –
अल्बानिया – मुस्लिम 70%
मलेशिया – मुस्लिम 62%
कतर – मुस्लिम 78%
सूडान – मुस्लिम 75%

जनसंख्या के 80% से ऊपर हो जाने के बाद तो सत्ता/शासन प्रायोजित जातीय सफ़ाई की जाती है, अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है, सभी प्रकार के हथकण्डे/हथियार अपनाकर जनसंख्या को 100% तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है, जैसे –
बांग्लादेश – मुस्लिम 83%
मिस्त्र – मुस्लिम 90%
गाज़ा पट्टी – मुस्लिम 98%
ईरान – मुस्लिम 98%
ईराक – मुस्लिम 97%
जोर्डन – मुस्लिम 93%
मोरक्को – मुस्लिम 98%
पाकिस्तान – मुस्लिम 97%
सीरिया – मुस्लिम 90%
संयुक्त अरब अमीरात – मुस्लिम 96%

बनती कोशिश पूरी 100% जनसंख्या मुस्लिम बन जाने, यानी कि दार-ए-स्सलाम होने की स्थिति में वहाँ सिर्फ़ मदरसे होते हैं और सिर्फ़ कुरान पढ़ाई जाती है और उसे ही अन्तिम सत्य माना जाता है, जैसे –
अफ़गानिस्तान – मुस्लिम 100%
सऊदी अरब – मुस्लिम 100%
सोमालिया – मुस्लिम 100%
यमन – मुस्लिम 100%

दुर्भाग्य से 100% मुस्लिम जनसंख्या होने के बावजूद भी उन देशों में तथाकथित “शांति” नहीं हो पाती। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जिन देशों में मुस्लिम जनसंख्या 8 से 10 प्रतिशत हो चुकी होती है, उन देशों में यह तबका अपने खास “मोहल्लो” में रहना शुरु कर देता है, एक “ग्रुप” बनाकर विशेष कालोनियाँ या क्षेत्र बना लिये जाते हैं, उन क्षेत्रों में अघोषित रूप से “शरीयत कानून” लागू कर दिये जाते हैं। उस देश की पुलिस या कानून-व्यवस्था उन क्षेत्रों में काम नहीं कर पाती, यहाँ तक कि देश का न्यायालयीन कानून और सामान्य सरकारी स्कूल भी उन खास इलाकों में नहीं चल पाते (ऐसा भारत के कई जिलों के कई क्षेत्रों में खुलेआम देखा जा सकता है, कई प्रशासनिक अधिकारी भी दबी जुबान से इसे स्वीकार करते हैं, लेकिन “सेकुलर-देशद्रोहियों” के कारण कोई कुछ नहीं बोलता)।

आज की स्थिति में मुस्लिमों की जनसंख्या समूचे विश्व की जनसंख्या का 22-24% है, लेकिन ईसाईयों, हिन्दुओं और यहूदियों के मुकाबले उनकी जन्मदर को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस शताब्दी के अन्त से पहले ही मुस्लिम जनसंख्या विश्व की 50% हो जायेगी (यदि तब तक धरती बची तो)… भारत में कुल मुस्लिम जनसंख्या 15% के आसपास मानी जाती है, जबकि हकीकत यह है कि उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और केरल के कई जिलों में यह आँकड़ा 40 से 50% तक पहुँच चुका है… अब देश में आगे चलकर क्या परिस्थितियाँ बनेंगी यह कोई भी (“सेकुलरों” को छोड़कर) आसानी से सोच-समझ सकता है…
(सभी सन्दर्भ और आँकड़े : डॉ पीटर हैमण्ड की पुस्तक “स्लेवरी, टेररिज़्म एण्ड इस्लाम – द हिस्टोरिकल रूट्स एण्ड कण्टेम्पररी थ्रेट तथा लियोन यूरिस – “द हज”, से साभार)

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

kaaba is a shiv temple. काबा एक शिव मंदिर हैं

जाने श्री पशुपतिनाथ नेपाल के बारे में

श्री_पशुपतिनाथ_नेपाल




पशुपतिनाथ मंदिर काठमांडू (नेपाल) के पूर्वी हिस्से में बागमती नदी के तट पर स्थित है। यह मंदिर हिन्दू धर्म के आठ सबसे पवित्र स्थलों में से एक माना जाता है। नेपाल में यह भगवान शिव का सबसे पवित्र मंदिर है। मंदिर दुनिया भर के हिन्दू तीर्थ यात्रियों के अलावा गैर हिन्दू पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र भी रहा है। यह मंदिर यूनेस्को विश्व सांस्कृतिक विरासत स्थल की सूची में शामिल है।
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महत्त्व

पशुपतिनाथ मंदिर में आने वाले गैर हिन्दू आगंतुकों को बागमती नदी के दूसरे किनारे से बाहर से मंदिर को देखने की अनुमति है। नेपाल में भगवान शिव का यह मंदिर विश्वभर में विख्यात है। इसका असाधारण महत्त्व भारत के अमरनाथ व केदारनाथ से किसी भी प्रकार कम नहीं है। इस अंतर्राष्ट्रीय तीर्थ के दर्शन के लिए भारत के ही नहीं, अपितु विदेशों के भी असंख्य यात्री और पर्यटक काठमांडू पहुंचते हैं। इस नगर के चारों ओर पर्वत मालाएँ हैं, जिनकी घाटियों में यह नगर अपना पर्वतीय सौंदर्य को बिखेरने के लिए थोड़ी-सी भी कंजूसी नहीं करता।
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मंदिर संरचना
प्राचीन समय इस नगर का नाम 'कांतिपुर' था। काठमांडू में बागमती व विष्णुमती नदियों का संगम है। मंदिर का शिखर स्वर्णवर्णी छटा बिखेरता रहता है। इसके साथ ही डमरू और त्रिशूल भी प्रमुख है। मंदिर एक मीटर ऊँचे चबूतरे पर स्थापित है। मंदिर के चारों ओर पशुपतिनाथ जी के सामने चार दरवाज़े हैं। दक्षिणी द्वार पर तांबे की परत पर स्वर्ण जल चढ़ाया हुआ है। बाकी तीन पर चांदी की परत है। मंदिर की संरचना चौकोर आकार की है। मंदिर की दोनों छतों के चार कोनों पर उत्कृष्ट कोटि की कारीगरी से सिंह की आकृति उकेरी गई है। मुख्य मंदिर में महिष रूपधारी भगवान शिव का शिरोभाग है, जिसका पिछला हिस्सा केदारनाथ में है। इस प्रसंग का उल्लेख स्कंदपुराण में भी हुआ है। मंदिर का अधिकतर भाग काष्ठ से निर्मित है। गर्भगृह में पंचमुखी शिवलिंग का विग्रह है, जो अन्यत्र नहीं है। मंदिर परिसर में अनेक मंदिर हैं, जिनमें पूर्व की ओर गणेश का मंदिर है। मंदिर के प्रांगण की दक्षिणी दिशा में एक द्वार है, जिसके बाहर एक सौ चौरासी शिवलिंगों की कतारें हैं।
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लिंग विग्रह
पशुपतिनाथ मंदिर के दक्षिण में उन्मत्त भैरव के दर्शन भैरव उपासकों के लिए बहुत कल्याणकारी है। पशुपतिनाथ लिंग विग्रह में चार दिशाओं में चार मुख और ऊपरी भाग में पाँचवाँ मुख है। प्रत्येक मुखाकृति के दाएँ हाथ में रुद्राक्ष की माला और बाएँ हाथ में कमंडल है। प्रत्येक मुख अलग-अलग गुण प्रकट करता है। पहला मुख 'अघोर' मुख है, जो दक्षिण की ओर है। पूर्व मुख को 'तत्पुरुष' कहते हैं। उत्तर मुख 'अर्धनारीश्वर' रूप है। पश्चिमी मुख को 'सद्योजात' कहा जाता है। ऊपरी भाग 'ईशान' मुख के नाम से पुकारा जाता है। यह निराकार मुख है। यही भगवान पशुपतिनाथ का श्रेष्ठतम मुख है।

पशुपतिनाथ मंदिर की सेवा आदि के लिए 1747 से ही नेपाल के राजाओं ने भारतीय ब्राह्मणों को आमंत्रित करना शुरू किया। उनकी धारणा थी कि भारतीय ब्राह्माण हिन्दू धर्मशास्त्रों और रीतियों में ज्यादा पारंगत होते हैं। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए 'माल्ला राजवंश' के एक राजा ने एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण को पशुपतिनाथ मंदिर का प्रधान पुरोहित नियुक्त किया था। यही परंपरा आने वाले दिनों में भी रही। दक्षिण भारतीय भट्ट ब्राह्मण ही इस मंदिर के प्रधान पुजारी नियुक्त होते रहे हैं।

पढ़ने के लिए धन्यवाद,
जानकारी अपने मित्रों तक भी पहुँचाए...!!

जय पशुपतिनाथ


भानु प्रताप सिंह शक्तावत

फेसबुक पर -> इंकलाब एक संघर्ष

भारतीय जासूस जो बना पाक सेना में मेजर

भारतीय जासूस जो बना पाक सेना में मेजर ------>>




पाकिस्तान में ज़िंदगी की जंग हारने वाले सरबजीत को लेकर भले ही ये विवाद हो कि वो भारत के जासूस थे या नहीं, लेकिन ये मामला जासूसी की रहस्यमयी दुनिया की तरफ ध्यान खींचता है।
जो जासूस सरकारों के लिए बेहद अहम जानकारी का जरिया होते हैं, उन्हें ही वो अक्सर नहीं स्वीकारती। हालांकि रवींद्र कौशिक जैसे जासूस फिर भी अपनी जान पर खेल इस काम को अंजाम देते हैं।

कौशिक की मौत भी पाकिस्तानी की ही एक जेल में हुई थी।
लेकिन मौत से पहले के उनके कारनामे किसी फ़िल्म से कहीं ज्यादा रोमांचक कहे जा सकते हैं।
वो न सिर्फ भारत के लिए जासूसी करने पाकिस्तान गए बल्कि उन्होंने पाकिस्तानी सेना में मेजर तक का पद हासिल कर लिया। बताया जाता है कि पाकिस्तानी सेना में रहते हुए उन्होंने भारत को बहुत अहम जानकारियां दीं।

‘जांबाज जासूस’

राजस्थान के श्रीगंगानगर ज़िले के रहने वाले कौशिक ने 23 वर्ष की आयु में स्तानक की पढ़ाई करने के बाद ही भारतीय खुफ़िया एजेंसी रॉ में नौकरी शुरू की।
साल 1975 में कौशिक को भारतीय जासूस के तौर पर पाकिस्तान भेजा गया था और उन्हें नबी अहमद शेख़ का नाम दिया गया। पाकिस्तान पहुंच कर कौशिक ने कराची के लॉ कॉलेज में दाखिल लिया और कानून में स्तानक की डिग्री हासिल की।
इसके बाद वो पाकिस्तानी सेना में शामिल हो गए और मेजर के रैंक तक पहुंच गए। लेकिन पाकिस्तान सेना को कभी ये अहसास ही नहीं हुआ कि उनके बीच एक भारतीय जासूस काम कर रहा है।
कौशिक को वहां एक पाकिस्तानी लड़की अमानत से प्यार भी हो गया। दोनों ने शादी कर ली और उनकी एक बेटी भी हुई।
कौशिक ने अपनी जिंदगी के 30 साल अपने घर और देश से बाहर गुजारे।
इस दौरान पाकिस्तान के हर कदम पर भारत भारी पड़ता था क्योंकि उसकी सभी योजनाओं की जानकारी कौशिक की ओर से भारतीय अधिकारियों को दे दी जाती थी।

''कैसे खुला राज''

लेकिन 1983 में कौशिक का राज खुल गया। दरअसल रॉ ने ही एक अन्य जासूस कौशिक से मिलने पाकिस्तान भेजा था जिसे पाकिस्तानी खुफ़िया एजेंसी ने पकड़ लिया।
पूछताछ के दौरान इस जासूस ने अपने इरादों के बारे में साफ़ साफ़ बता दिया और साथ ही कौशिक की पहचान को भी उजागर कर दिया।
हालांकि कौशिक वहां से भाग निकले और उन्होंने भारत से मदद मांगी, लेकिन भारत सरकार पर आरोप लगते हैं कि उसने उन्हें भारत लाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई गई।

आखिरकार पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों ने कौशिक को पकड़ लिया और सियालकोट की जेल में डाल दिया। वहां न सिर्फ उनका शोषण किया गया बल्कि उन पर कई आरोपों में मुकदमा भी चला।

बताते हैं कि वहां रवींद्र कौशिक को लालच दिया गया कि अगर वो भारतीय सरकार से जुड़ी गोपनीय जानकारी दे दें तो उन्हें छोड़ दिया जाएगा। लेकिन कौशिक ने अपना मुंह नहीं खोला, पाकिस्तान में कौशिक को 1985 में मौत की सजा सुनाई गई जिसे बाद में उम्रकैद में तब्दील कर दिया गया।

वो मियांवाली की जेल में रखे गए और 2001 में टीबी और दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई।

रियल लाईफ के असली हीरो के बारे में सभी को बताएँ..
पढ़कर शेयर करना ना भूलें अपना अमूल्य समय देने के लिये आभार ।।

वन्देमातरम्



भानु प्रताप सिंह शक्तावत

मंगलवार, 27 मई 2014

जानिए स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर जी को


यह धरा मेरी यह गगन मेरा, इसके वास्ते शरीर का कण-कण मेरा - इन पंक्तियों को चरितार्थ करने वाले क्रांतिकारियों के आराध्य देव स्वातंत्र्य विनायक दामोदर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। वे न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे । वे एक ऐसे इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हिन्दू-राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढँग से लिपिबद्ध किया है। उन्होंने 1847 के प्रथम स्वातंत्र्य समर का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया था ।
 
क्रांतिकारियों के मुकुटमणि और हिंदुत्व के प्रणेता वीर सावरकर का जन्म 28 मई, सन 1883 को नासिक जिले के भगूर ग्राम में हुआ था | इनके पिता श्री दामोदर सावरकर एवं माता राधाबाई दोनों ही धार्मिक और हिंदुत्व विचारों के थे जिसका विनायक दामोदर सावरकर के जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ा | मात्र नौ वर्ष की उम्र में हैजे से माता और 1899 में प्लेग से पिता का देहांत होने के कारन इनका प्रारंभिक जीवन कठिनाई में बीता |
वीर सावरकर एक नज़र में - पहल करने वालों में ''प्रथम'' थे सावरकर
अप्रितम क्रांतिकारी, दृढ राजनेता, समर्पित समाज सुधारक, दार्शनिक, द्रष्टा, महान कवि और महान इतिहासकार आदि अनेकोनेक गुणों के धनी वीर सावरकर हमेशा नये कामों में पहल करते थे । उनके इस गुण ने उन्हें महानतम लोगों की श्रेणी में उच्च पायदान पर लाकर खड़ा कर दिया। वीर सावरकर द्वारा किये गए कुछ प्रमुख कार्य जो किसी भी भारतीय द्वारा प्रथम बार किए गए -
- वे प्रथम नागरिक थे जिसने ब्रिटिश साम्राज्य के केन्द्र लंदन में उसके विरूद्ध क्रांतिकारी आंदोलन संगठित किया ।
- वे पहले भारतीय थे जिसने सन् 1906 में 'स्वदेशी' का नारा देकर विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी ।
- सावरकर पहले भारतीय थे जिन्हें अपने विचारों के कारण लन्दन में बैरिस्टर की डिग्री खोनी पड़ी ।
- वे पहले भारतीय थे जिन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की ।
- वे पहले भारतीय थे जिन्होंने सन् 1857 की लड़ाई को भारत का 'स्वाधीनता संग्राम' बताते हुए लगभग एक हजार पृष्ठों का इतिहास 1908 में लिखा ।
- वे पहले और दुनिया के एकमात्र लेखक थे जिनकी किताब को प्रकाशित होने के पहले ही ब्रिटिश और ब्रिटिश साम्राज्य की सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया ।
- वे दुनिया के पहले राजनीतिक कैदी थे, जिनका मामला हेग के अंतराष्ट्रीय न्यायालय में चला था ।
- वे पहले भारतीय राजनीतिक कैदी थे, जिसने एक अछूत को मंदिर का पुजारी बनाया था ।
- सावरकर ने ही वह पहला भारतीय झंडा बनाया था, जिसे जर्मनी में 1907 की अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम कामा ने फहराया था ।
- सावरकर ही वे पहले कवि थे, जिसने कलम-कागज के बिना जेल की दीवारों पर पत्थर के टुकड़ों से कवितायें लिखीं । कहा जाता है उन्होंने अपनी रची दस हजार से भी अधिक पंक्तियों को प्राचीन वैदिक साधना के अनुरूप वर्षों स्मृति में सुरक्षित रखा, जब तक वह किसी न किसी तरह देशवासियों तक नहीं पहुच गई ।
सन् 1947 में विभाजन के बाद आज भारत का जो मानचित्र है, उसके लिए भी हम सावरकर के ऋणी हैं । जबकांग्रेस ने मुस्लिम लीग के 'डायरेक्ट एक्शन' और बेहिसाब हिंसा से घबराकर देश का विभाजन स्वीकार कर लिया, तो पहली ब्रिटिश योजना के अनुसार पूरा पंजाब और पूरा बंगाल पाकिस्तान में जाने वाला था - क्योंकि उन प्रांतोंमें मुस्लिम बहुमत था। तब सावरकर ने अभियान चलाया कि इन प्रांतो के भारत से लगने वाले हिंदू बहुल इलाकोंको भारत में रहना चाहिए । लार्ड मांउटबेटन को इसका औचित्य मानना पड़ा। तब जाकर पंजाब और बंगाल कोविभाजित किया गया । आज यदि कलकत्ता और अमृतसर भारत में हैं तो इसका श्रेय वीर सावरकर को ही जाता है |
The Indian War of Independence - 1947
वीर सावरकर ने इस पुस्तक में सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिख कर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था जिसके कारण इस पुस्तक के प्रकाशन के लिए सावरकर जी को अनगिनत परेशानियों का सामना करना पड़ा । वीर सावरकर से पहले सभी इतिहासकारों ने 1947 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक "सिपाही विद्रोह" या अधिकतम "भारतीय विद्रोह" कहा था । यहाँ तक कि भारतीय विश्लेषकों ने भी इसे भारत में ब्रिटिष साम्राज्य के ऊपर किया गया एक योजनाबद्ध राजनीतिक एवं सैन्य आक्रमण ही कहा था ।
सावरकर प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने 1947 की घटनाओं को भारतीय दृष्टिकोण से देखा। सावरकर जी ने इस पूरी घटना को उस समय उपलब्ध साक्ष्यों व पाठ सहित पुनरव्याख्यित करने का निश्चय किया और कई महीने इण्डिया ऑफिस पुस्तकालय में इस विषय पर अध्ययन में बिताये । इस पुस्तक को सावरकर जी ने मूलतः मराठी में 1908 में पूरा किया परन्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी । इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे । इंडिया हाउस में रह रहकर छः छात्रों ने इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद किया और बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से 1909 में हॉलैंड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं । फिर इसका द्वितीय संस्करण लाला हरदयाल द्वारा गदर पार्टी की ओर से अमरीका में निकला, तृतीय संस्करण सरदार भगत सिंह द्वारा निकाला गया और चतुर्थ संस्करण नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा सुदूर-पूर्व में निकाला गया । फिर इस पुस्तक का अनुवाद उर्दु, हिंदी, पंजाबी व तमिल में भी किया गया । इसके बाद एक संस्करण गुप्त रूप से भारत में भी द्वितीय विश्व यु्द्ध के समाप्त होने के बाद मुद्रित हुआ । इसकी मूल पांडु-लिपि मैडम भीकाजी कामा के पास पैरिस में सुरक्षित रखी थी । यह प्रति अभिनव भारत के डॉ.क्यूतिन्हो को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पैरिसम संकट आने के दौरान सौंपी गई । डॉ.क्युतिन्हो ने इसे किसी पवित्र धार्मिक ग्रंथ की भांति ४० वर्षों तक सुरक्षित रखा । भारतीय स्वतंत्रता उपरांत उन्होंने इसे रामलाल वाजपेयी और डॉ.मूंजे को दे दिया, जिन्होंने इसे सावरकर को लौटा दिया। इस पुस्तक पर लगा निषेध अन्ततः मई, 1946 में बंबई सरकार द्वारा हटा लिया गया ।
सैल्यूलर जेल (Cellular Jail)
नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए 'नासिक षडयंत्र काण्ड' के अंतर्गत इन्हें 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया। यहाँ उन्हें दूसरी मंजिल की कोठी नंबर २३४ मैं रखा गया और उनके कपड़ो पर भयानक कैदी लिखा गया । कोठरी मैं सोने और खड़े होने पर दीवार छू जाती थी | उनके के अनुसार यहां स्वतंत्रता सेनानियों को नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था । साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल भी निकालना होता था । इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था । रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं । इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था। इतना कष्ट सहने के बावजूद भी वह रात को दीवार पर कविता लिखते, उसे याद करते और मिटा देते । सावरकर 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे ।
सबसे आश्चर्य की बात ये है कि आजादी के बाद भी जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस ने उनसे न्याय नहीं किया । देश का हिन्दू कहीं उन्हें अपना नेता न मान बैठे इसलिए उन पर महात्मा गाँधी की हत्या का आरोप लगा कर लाल किले मैं बंद कर दिया गया। बाद मे. न्यायालय ने उन्हें ससम्मान रिहा कर दिया। पूर्वाग्रह से ग्रसित कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें इतिहास मैं यथोचित स्थान नहीं दिया। स्वाधीनता संग्राम में केवल गाँधी और गांधीवादी नेताओं की भूमिका का बढा-चढ़ाकर उल्लेख किया गया ।
वीर सावरकर की मृत्यु के बाद भी कांग्रेस ने उन्हें नहीं छोडा । सन 2003 मैं वीर सावरकर का चित्र संसद के केंद्रीय कक्ष मैं लगाने पर कांग्रेस ने विवाद खडा कर दिया था। 2007 मैं कांग्रेसी नेता मणि शंकर अय्यर ने अंडमान के कीर्ति स्तम्भ से वीर सावरकर के नाम का शिलालेख हटाकर महात्मा गाँधी के नाम का पत्थर लगा दिया । जिन कांग्रेसी नेताओ ने राष्ट्र को झूठे आश्वासन दिए, देश का विभाजन स्वीकार किया, जिन्होंने शेख से मिलकर कश्मीर का सौदा किया, वो भले ही आज पूजे जाये पर क्या वीर सावरकर को याद रखना इस राष्ट्र का कर्तव्य नहीं है ?
क्रमबद्ध प्रमुख घटनाएँ
- पढाई के दौरान के विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके "मित्र मेलों" का आयोजन करना शुरू कर नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जगाना प्रारंभ कर दिया था ।
- 1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की ।
- 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई ।
- फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देकर युवाओ को क्रांति के लिए प्रेरित करते थे ।
- बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली ।
इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुये, जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे ।
- 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई । इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1847 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया ।
- 1908 में इनकी पुस्तक 'The Indian war of Independence - 1947" तैयार हो गयी |
- मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एक्ट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की, परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली ।
- लन्दन में रहते हुये उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाऊस की देखरेख करते थे ।
- 1 जुलाई, 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था ।
- 13 मई, 1910 को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया |
- 8 जुलाई, 1910 को एस०एस० मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले ।
- 24 दिसंबर, 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी ।
- 31 जनवरी, 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया ।
- नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया ।
- 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे ।
- 1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी । जेल में उन्होंने हिंदुत्व पर शोध ग्रन्थ लिखा ।
- मार्च, 1925 में उनकी भॆंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, डॉ० हेडगेवार से हुई ।
- फरवरी, 1931 में इनके प्रयासों से बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई, जो सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था ।
- 25 फरवरी, 1931 को सावरकर ने बम्बई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की ।
- 1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए 19वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिये अध्यक्ष चुने गये ।
- 15 अप्रैल, 1938 को उन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया ।
- 13 दिसम्बर, 1937 को नागपुर की एक जन-सभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिये चल रहे प्रयासों को असफल करने की प्रेरणा दी थी ।
- 22 जून, 1941 को उनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई ।
- 9 अक्तूबर, 1942 को भारत की स्वतन्त्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया । सावरकर जीवन भर अखण्ड भारत के पक्ष में रहे । स्वतन्त्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गान्धी और सावरकर का एकदम अलग दृष्टिकोण था ।
- 1943 के बाद दादर, बम्बई में रहे ।
- 19 अप्रैल, 1945 को उन्होंने अखिल भारतीय रजवाड़ा हिन्दू सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की ।
- अप्रैल 1946 में बम्बई सरकार ने सावरकर के लिखे साहित्य पर से प्रतिबन्ध हटा लिया ।
- 1947 में इन्होने भारत विभाजन का विरोध किया। महात्मा रामचन्द्र वीर नामक (हिन्दू महासभा के नेता एवं सन्त) ने उनका समर्थन किया ।
- 15 अगस्त, 1945 को उन्होंने सावरकर सदान्तो में भारतीय तिरंगा एवं भगवा, दो-दो ध्वजारोहण किये। इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने पत्रकारों से कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परन्तु वह खण्डित है, इसका दु:ख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं ।
- 5 फरवरी, 1948 को गान्धी-वध के उपरान्त उन्हें प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया ।
- 4 अप्रैल, 1950 को पाकिस्तानी प्रधान मंत्री लियाक़त अली ख़ान के दिल्ली आगमन की पूर्व संध्या पर उन्हें सावधानीवश बेलगाम जेल में रोक कर रखा गया ।
- मई, 1952 में पुणे की एक विशाल सभा में अभिनव भारत संगठन को उसके उद्देश्य (भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति) पूर्ण होने पर भंग किया गया ।
- 10 नवम्बर, 1957 को नई दिल्ली में आयोजित हुए 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे ।
- 8 अक्तूबर, 1959 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी०.लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया ।
- सितम्बर, 1966 से उन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा, जिसके बाद इनका स्वास्थ्य गिरने लगा ।
- 1 फरवरी, 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया ।
- 26 फरवरी, 1966 को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः १० बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को प्रस्थान किया ।
सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी थी जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। सावरकर के अनुसार -
"मातृभूमि ! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ। देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की है |"
निसंदेह अंग्रेजो की सरकार के लिए वीर सावरकर के क्रांतिकारी विचार एक बहुत बड़ी समस्या से थे, और सावरकर जी अंग्रेजी सरकार के लिए हमेशा ही एक "खलनायक" थे | शायद भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, लाला लाजपत रॉय जैसे खलनायक, या फिर उनसे भी बड़े महाखलनायक थे |
लेकिन आज न तो अंग्रेजो की सरकार है और न ही हम अँगरेज़ है | वो अंग्रेजी सरकार के लिए क्या थे, आज ये प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है | आज हम स्वतंत्र है, लेकिन फिर भी यदि कोई व्यक्ति या दल वीर सावरकर जी को खलनायक, गद्दार या कुछ ऐसा ही कहता है, तब ऐसे व्यक्तियों या दल पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है | इतना ही नहीं, इनकी सोच से देश और देशवासियों के प्रति चल रहे किसी गूढ़ षड़यंत्र की बू आती है | 
उपरोक्त जानकारी के बाद अब आपको निर्णय लेना है कि क्या वीर सावरकर को खलनायक या गद्दार कहने वाले किसी भी व्यक्ति अथवा दल की सोच भारतीय हो सकती है ? भारत को कुछ लोगो अथवा परिवार का गुलाम मानने वाले  लोगो ने सावरकर जी को कुछ अपशब्द कहें है, एक ऐसे व्यक्ति को जिसने अपना पूरा जीवन भारतीय संस्कृति की रक्षा और देश की आज़ादी के लिए समर्पित कर दिया | क्या इन लोगो की सोच किसी भी प्रकार से भारतीय हो सकती हो ? क्या ये लोग आपके और मेरे भारत के मित्र हो सकते है ? क्या ये भारत माता के सेवक है या आज भी अंग्रेजो के गुलाम ? अब इन लोगो के साथ आपको कैसा व्यहार करना है, इसका निर्णय आपको स्वं ही लेना होगा |

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वीर सावरकर

वीर सावरकर

स्वातंत्र्यवीर सावरकर के नाम से प्रसिद्ध विनायक दामोदर सावरकर एक निर्भीक स्वाधीनता सेनानी, समाज सुधारक, लेखक, नाटककार, कवि, इतिहासकार, राजनेता और दार्शनिक थे। दशकों तक उनके विरुद्ध चले द्वेषपूर्ण प्रचार के कारण उत्पन्न गलतफहमी के चलते वे एक बड़े वर्ग के लिये प्रायः अपरिचित रहे। उनके जीवन, विचार तथा कार्य की प्रासंगिकता को जानिए..

वीर सावरकर – एक अपूर्व व्यक्तित्व

  • प्रथम राजनेता, जिन्होंने साहसपूर्वक पूर्ण राजनैतिक स्वतंत्रता को भारत का लक्ष्य बताया (1900)
  • प्रथम राजनेता, जिन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलायी (7 जुलाई 1905, पुणे)
  • प्रथम भारतीय, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्वतंत्रता के लिये क्रांतिकारी आन्दोलन प्रारंभ किया (1906)
  • प्रथम भारतीय विधि छात्र, जिसे ब्रिटिश राज से भारत की स्वतंत्रता पाने संबंधी गतिविधियों के कारण परीक्षा उत्तीर्ण करने तथा अन्य आवश्यक औपचारिकताएं पूरी करने के उपरान्त भी इंग्लिश बार में नहीं आमंत्रित किया गया/स्थान नहीं दिया गया (1909) / प्रथम छात्र जिनकी बैरिस्टर की उपाधि राजनिष्ठा की शपथ लेने से इनकार करने के कारण रोक ली गयी
  • एकमात्र भारतीय नेता, जिनकी लंदन में गिरफ्तारी ने ब्रिटिश न्यायालय के समक्ष वैधानिक समस्या उत्पन्न कर दी । यह प्रकरण फ्यूजिटिव ऑफेंडर्स एक्ट तथा हैबियस कॉर्पस की समुचित व्याख्या हेतु लंबित है।
  • प्रथम भारतीय इतिहासकार, जिनकी पुस्तक “1857 का स्वातंत्र्य समर” को प्रकाशन से पूर्व ही ब्रिटिश उच्चाधिकारियों द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था। आधिकारिक प्रतिबंध के छः माह पूर्व ही गवर्नर जनरल ने पोस्टमास्टर जनरल को पुस्तक की प्रतियां जब्त करने को कहा। (1909)
  • प्रथम राजनैतिक बंदी, जिनकी साहसिक फरारी तथा फ्रांस की भूमि पर पुनः गिरफ्तारी के कारण हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मुकदमा चलाया गया। इस प्रकरण का उल्लेख तत्कालीन अनेक अंतरराष्ट्रीय संधियों में किया गया।
  • प्रथम स्नातक, जिसकी उपाधि भारत की स्वतंत्रता हेतु प्रयत्न के कारण भारतीय़ विश्वविद्यालय द्वारा वापस ले ली गयी। (1911)
  • प्रथम साहित्यकार, जिन्होंने लेखनी और कागज से वंचित होने पर भी, अंदमान जेल की दीवारों पर कीलों, कांटों और यहां तक कि नाखूनों से भी, विपुल साहित्य का सृजन किया और दस हजार से अधिक पंक्तियों को वर्षों तक कंठस्थ रखा और अपने सहबंदियों को भी कंठस्थ कराकर उनके द्वारा देशवासियों तक पहुंचाया  
  • प्रथम क्रांतिकारी नेता, जिन्होंने सुदूर रत्नागिरि जिले में नजरबंदी के दौरान दस वर्ष से भी कम समय में अस्पृश्यता को समाप्तप्रायः कर दिया।
  •  प्रथम भारतीय नेता, जिन्होंने सफलतापूर्वक प्रारंभ किया -
    • गणेशोत्सव, पूर्व अस्पृश्यों सहित सभी हिन्दुओं के लिये (1930)
    • सहभोज समारोह, पूर्व अस्पृश्यों सहित सभी हिन्दुओं के लिये (1931)
    • पतितपावन मंदिर, पूर्व अस्पृश्यों सहित सभी हिंदुओं के लिये (22 फरवरी 1931)
    • जलपानगृह, पूर्व अस्पृश्यों सहित सभी हिन्दुओं के लिये (1 मई 1933)
  • विश्व के प्रथम राजनैतिक बंदी, जिन्हें दो जन्मों का कारावास एवं निर्वासन का दण्ड मिला, समूचे ब्रिटिश साम्राज्य में यह अद्वितीय घटना है।
  • प्रथम राजनेता, जिन्होंने योग की उच्चतम स्थिति प्राप्त कर आत्मसमर्पण द्वारा प्राणोत्सर्ग किया।

स्वातंत्रय सेनानी वीर सावरकर – अन्याय से पूर्ण एक अमरगाथा

6यह कहा जाए कि आधुनिक भारतीय इतिहास में जिस महापुरुष के साथ सबसे अधिक अन्याय हुआ, वह सावरकर ही हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सावरकर ‘नाख़ून कटाकर’ क्रन्तिकारी नहीं बने थे। 27 वर्ष की आयु में, उन्हें 50-50 वर्ष के कैद की दो सजाएँ हुई थीं। 11 वर्ष के कठोर कालापानी के सहित उन्होंने कुल 27 वर्ष कैद में बिताए। सन 1857 के विद्रोह को ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ बताने वाली प्रामाणिक पुस्तक सावरकर ने ही लिखी। ब्रिटिश जहाज से समुद्र में छलांग लगाकर, सावरकर ने ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अंतर्राष्ट्रीयकरण किया। ‘हिंदुत्व’ नामक पुस्तक लिखकर सावरकर ने ही भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित किया। जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का विरोध, पूरी शक्ति से सावरकर ने ही किया। जातिवाद और अश्पृश्यता का जैसा विरोध वीर सावरकर ने किया था, वैसा तो कांग्रेस तब क्या, आज भी नहीं कर सकती है।
लेकिन देश उन्हें कैसे याद करता है? भारत रत्न प्राप्त कर चुके 41 महानुभावों के सूचि में वीर सावरकर का नाम नहीं है। उनके जन्मदिन पर संसद में उनके चित्र पर माल्यार्पण करने के लिए सरकार का कोई प्रतिनिधि नहीं होता है। सेक्युलरिज्म के स्वयम्भू दूत मणि शंकर अय्यर ने तो सेल्युलर जेल से भी सावरकर की यादों को मिटने का प्रयास किया जहाँ वीर सावरकर ने कालापानी की सजा काटी थी। अपनी चमड़ी बचाने के लिए सावरकर के लंबे और एतिहासिक भाषण के एक वाक्य को उठाकर उन्हें ‘हिन्दू जिन्ना’ बनाने की कोशिश होती रही है और उन्हें विभाजन के लिए भी जिम्मेवार ठहराने की कोशिश होती रहा है। मानो भारतीय जनमानस के ‘स्वयम्भू’ प्रतिनिधि सावरकर ही रहे हों। जबकि सत्य तो यही है कि सावरकर ने अंत तक विभाजन को स्वीकार नहीं किया।
सावरकर को बदनाम करने के निकृष्ट अभियान में भारत के तथाकथित वामपंथी और गांधीवादी बुद्धिजीवियों ने अपूर्व एकता का परिचय दिया। इन बुद्धिजिवियों ने सावरकर पर तीन मुख्य आरोप लगाये: 1) अंग्रेजों से माफ़ी मांगना, 2) दूसरा हिन्दू साम्प्रदायिकता का जनक होना, 3) गांधी के हत्या का षड़यंत्र रचना। आगे हम इन आरोपों की पड़ताल करेंगे…
सावरकर पर पहल आरोप है अंग्रेजों से क्षमा याचना का। यह ठीक है कि जब 1913 में जब गवर्नर-जनरल का प्रतिनिधि रेजिनाल्ड क्रेडॉक पोर्ट ब्लेयर गया तो सावरकर ने अपनी याचिका पेश की। यह ठीक है कि सावरकर ने खूनी क्राति का मार्ग छोड़कर संवैधानिक रास्ते पर चलने का और राजभक्ति का आश्वासन दिया लेकिन ज़रा गौर कीजिए कि सावरकर की याचिका पर क्रेडोक ने क्या कहा| क्रेडोक ने अपनी गोपनीय टिप्पणी में लिखा कि ‘सावरकर को अपने किए पर जरा भी पछतावा या खेद नहीं है और वह अपने  ह्रदय परिवर्तन का ढोंग कर रहा है|’ उसने यह भी लिखा कि सावरकर सबसे खतरनाक कैदी है| भारत और यूरोप के क्रांतिकारी उसके नाम की कसम खाते हैं और यदि भारत भेज दिया गया तो वे उसे भारतीय जेल तोड़कर निश्चय ही छुड़ा ले जाऍंगे| इस याचिका के बाद भी सावरकर ने लगभग एक दशक तक ‘काले पानी’ की महायातना भोगी| यहाँ दो बातें समझना आवश्यक है। पहली यह कि कालापानी की सजा इतनी भयंकर हुआ करती थी कि वहाँ से कोई व्यक्ति जीवित वापस नहीं आता था। सावरकर के आदर्श वीर शिवाजी थे, उन्हें पता था कि राष्ट्र की सेवा के लिए जीवित रहना आवश्यक है। उन्हें यह भी अच्छी तरह पता था कि अंडमान द्वीप से निकलने का एकमात्र रास्ता यह ‘हृदय-परिवर्तन’ ही है। इसलिए उन्होंने यह प्रयास किया यद्यपि असफल रहे।
यदि अंग्रेजों के सामने याचिका प्रस्तुत करना अपराध है तो कांग्रेस का एक भी बड़ा नेता ऐसा नहीं, जिसने इसका उपयोग नहीं किया हों। जहाँ तक राजभक्ति के आश्वासन की बात है तो गांधीजी ने तो कई बार राजभक्ति की शपथ ली थी और प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार का साथ भी दिया था। जो वामपंथी बुद्धिजीवी सावरकर का उपहास करते रहे हैं उन्हें लेनिन और स्टालिन के कारनामों की जानकारी होनी ही चाहिए।
दूसरा आरोप सावरकर पर, हिन्दुवादी साम्प्रदायिकता के जनक होने का है। पहले तो यह तय हो कि इस धरा पर हिन्दू साम्प्रदायिकता जैसा कुछ है भी या नहीं। संप्रदाय का आशय होता है ‘सम्यक प्रकारेण प्रदीयते इति सम्प्रदाय’। अर्थात एक गुरु के द्वारा समूह को सम्यक रूप से प्रदान की गई व्यवस्था को ‘संप्रदाय’ कहते हैं। इस अर्थ में इस्लाम, इसाई, मार्क्सवादी, माओवादी, संप्रदाय हो सकते हैं। हिन्दू समाज के अंदर भी जैन, बौद्ध, सिक्ख, नाथ इत्यादि कई संप्रदाय हैं लेकिन स्वयम हिन्दू समाज ही एक संप्रदाय नहीं है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए कहा था कि ‘religion’ को भारतीय सन्दर्भ में धर्मं का समानार्थी बताना बहुत बड़ी भूल थी। ‘religion’, संप्रदाय का समानार्थी शब्द है, धर्मं का नहीं। इस गलत अनुवाद के कारण लोग अब धर्म और संप्रदाय को पर्यायवाची शब्द समझने लगे हैं। मानो ‘धार्मिक होना’ और ‘साम्प्रदायिक होना’ एक ही बात हों।
6वीर सावरकर की लिखी एक लघु पुस्तक है ‘हिंदुत्व’। भारतीय जनमानस पर प्रभाव के दृष्टिकोण से देखें तो यह उनकी सबसे अधिक महत्वपूर्ण रचना है। यदि प्रति शब्द प्रभाव के गणित से देखा जाए तो ‘हिंदुत्व’ निश्चय ही मार्क्स के ‘कैपिटल’ से अधिक प्रभावशाली पुस्तक प्रमाणित हुई है। ‘हिंदुत्व’ भारतीय राष्ट्रीयता को परिभाषित करने वाली पहली पुस्तक है। सावरकर के इस निर्मम थे। वे यथासंभव तथ्यपरक बने रहने की कोशिश करते थे। अपने पुस्तक ‘हिंदुत्व’ में सावरकर ने किसी का तुष्टिकरण नहीं किया है बल्कि कटु सत्य बताया है। हाँ, लगभग 90 वर्षों के पश्चात, आज उसमे से कितने तर्क प्रासंगिक रह गए हैं और कितने अप्रासंगिक, यह अलग प्रशन है। उन्होंने आर्यों के मध्य एशिया से भारत में आने की बात कही है क्योंकि उस समय तक यह प्रमाणित नहीं हुआ था कि सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में एक ही रक्त समूह के लोग बसते हैं और तब तक स्थापित मान्यता यही थी कि भारतीय आर्य बाहर से आये हैं। उन्होंने हिन्दू के परिभाषा में उन सभी संप्रदायों को शामिल किया है जिनकी पुण्यभूमि भारत ही है। लेकिन सावरकर मुसलमानों एवं ईसाईयों को हिन्दू स्वीकार करने से इनकार करते हैं और इसका आधार इनके पुण्यभूमि के भारत से बाहर होना है।
उस समय में जो वैश्विक और विशेषकर भारतीय परिस्थितियां थी उसमे ‘पुण्यभूमि’ के लिए निष्ठा के आगे ‘पितृभूमि’ के लिए निष्ठा नगण्य थी।  ‘हिंदुत्व’ सन 1923 में लिखी गयी थी। उस समय खिलाफत आंदोलन चरम पर था। भारत की परतंत्रता के प्रति प्रायः उदासीन रहने वाला मुस्लिम समाज अपने पुण्यभूमि की रक्षा के लिए पूरी तरह उद्वेलित था। कांग्रेस और कांग्रेस के कारण हिंदू समाज भी खिलाफत के समर्थन में खड़ा था। जबकि इस आंदोलन के जोश में मुस्लिम समाज भारत में ही निजाम-ए-मुस्तफा कायम करने पर तुला हुआ था। उसी कालखंड में, केरल के मोपला में हिंदुओं का भीषण संहार हुआ और उनका सामूहिक धर्मान्तरण भी किया गया। उसी दौर में मुस्लिम लीग ने अफगानिस्तान के बादशाह को भारत पर कब्ज़ा करने का निमंत्रण दिया। ऐसे दौर में सावरकर राष्ट्रवाद को भला और कैसे परिभाषित करते? वे ‘इश्वर अल्लाह तेरे नाम’ कैसे गाते जबकि ‘अल्लाह के बंदे’, ‘इश्वर के भक्तों’ को मिटा कर भारत को ‘दारुल इस्लाम’ बनने पर तुले हुए थे? वे उपन्यास नहीं लिख रहे थे वरन भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित कर रहे थे, तो क्या वीर सावरकर कर्णप्रिय मिथ्या लिखते या कटु सत्य? निस्संदेह उन्होंने कटु सत्य चुना। वीर सावरकर ने हिंदुत्व में लिखा भी है कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व में अभिन्न सम्बन्ध होने के बाद भी दोनों एक दूसरे का पर्याय नहीं हैं। उन्होंने कई बार पर स्पष्ट किया है कि हिंदुत्व, हिन्दुइज्म (Hinduism) नहीं है।
तीसरा आरोप है उनपर, महात्मा गांधी के हत्या के षड़यंत्र में शामिल होने का। महात्मा गांधी की हत्या हिंदू महासभा के एक कार्यकर्ता ने की थी। निवर्तमान शासन ने सोचा कि क्यों न एक झटके में ही सभी हिंदुत्व समर्थ शक्तियों को समाप्त कर दिया जाये। इसीलिए गाँधी के हत्या के षड़यंत्र में वीर सावरकर को भी आरोपी बनाया गया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी, सावरकर भी गिरफ्तार हुए और गोलवलकर गुरूजी भी। लेकिन न्यायालय में यह प्रमाणित हुआ कि सावरकर गाँधी के हत्या के षड़यंत्र में शामिल नहीं थे वरन उन्हें गाँधी के हत्या के षड़यंत्र में आरोपी बनाने का षड़यंत्र हुआ था। सावरकर ससम्मान मुक्त किये गए (लेकिन हमें यही पढाया जाता है कि उन्हें ‘सबूतों के अभाव’ में छोड़ दिया गया। सबूत होने के बाद भी किसी को न्यायलय से मुक्त किया जाता हो तो हमें भी बताया जाए)।
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वीर सावरकर के विरुद्ध साजिशकर्ताओं को संभवतः पता रहा हो कि उन्हें सजा देने लायक कोई सबूत नहीं है। लेकिन वे हिंदुत्व के जनक को बदनाम करना चाहते थे। वीर सावरकर का राजनीतिक करियर यहीं समाप्त हो गया और हिंदू महासभा भी पुनः खड़ी नहीं हो सकी। आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर गुरूजी ने कहा भी था कि गाँधी हत्या के आरोप के कारण संघ 30 वर्ष पीछे चला गया। वीर सावरकर और आरएसएस पर इस षड़यंत्र में शामिल होने का झूठा आरोप यह प्रमाणित करता है कि ‘गांधीवादियों’ ने गाँधी के चिता के साथ ही गांधीवाद भी जला दिया था।
भारतीय राजनीति में वीर सावरकर कि तुलना महात्मा गाँधी से ही हो सकती है। दोनों अलग ध्रुव थे, गांधी आदर्शवादी थे तो वीर सावरकर यथार्थवादी। इसमे संदेह नहीं कि सावरकर कि अपेक्षा गाँधी की स्वीकार्यता बहुत अधिक थी। लेकिन यहाँ ध्यान देने की बात है कि गाँधी का भारतीय राजनीति में आगमन सन 1920 के आसपास हुआ था जबकि सावरकर ने सन 1937 में हिंदू महासभा में का नेतृत्व लिया था (सन 1937 तक वीर सावरकर पर राजनीति में प्रवेश की पाबन्दी थी)। जब गांधी भारतीय राजनीति में आये तो शिखर पर एक शुन्य था, तिलक और गोखले जैसे लोग अपने अंतिम दिनों में थे। लेकिन जब वीर सावरकर आये तब गाँधी एक बड़े नेता बन चुके थे। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लोग महात्मा गाँधी को चमत्कारी पुरुष मानते थे और उनके नाम से कई किंवदंतियाँ प्रचलित थी, जैसे कि वे एकसाथ जेल में भी होते हैं और मुंबई में कांग्रेस की सभा में भी उपस्थित रहते हैं (पता नहीं इस तरह की कहानियों को प्रचलित करने में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का कितना योगदान है)। ऐसे में सावरकर गाँधी के तिलिस्म को तोड़ नहीं सके, यद्यपि पढ़े लिखे लोगों के मध्य उनकी स्वीकार्यता अधिक थी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ। श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर प्रसिद्ध वकील निर्मलचन्द्र चटर्जी तक उनके अनुयायियों में थे (इन्ही निर्मल चंद्र चटर्जी के पुत्र हैं पूर्व लोकसभा अध्यक्ष- सोमनाथ चटर्जी)।
यदि सावरकर भी सन 1920 के आसपास ही राजनीति में आये होते तो जनमानस किसके साथ जाता, यह कोई नहीं जानता। वीर सावरकर उस दौर में एकमात्र राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने गाँधी से सीधे लोहा लिया था। कांग्रेस के अंदर और बाहर भी, ऐसे लोगों की लंबी सूचि है जो गाँधी से सहमत नहीं थे लेकिन कोई भी उनसे टक्कर नहीं ले सका। लेकिन सावरकर ने स्पष्ट शब्दों में अपनी असहमति दर्ज कराई। उन्होंने खिलाफत आंदोलन का पूरी शक्ति से विरोध किया और इसके घातक परिणामों की चेतावनी दी। इससे कौन इनकार करेगा कि खिलाफत आंदोलन से ही पाकिस्तान नाम के विषवृक्ष कि नीव पड़ी? इसी तरह सन 1946 के अंतरिम चुनावों के समय भी उन्होंने हिंदू समाज को चेतावनी दी कि कांग्रेस को वोट देने का अर्थ है ‘भारत का विभाजन’, वीर सावरकर सही साबित हुए। वीर सावरकर की सोच पूरी तरह वैज्ञानिक थी लेकिन तब भारत उनके वैज्ञानिक सोच के लिए तैयार नहीं था।
यह सच है कि सावरकर अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हुए। लेकिन सफलता ही एकमात्र पैमाना हो तो रानी लक्ष्मीबाई, सरदार भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे कई महान विभूतियों को इतिहास से निकाल देना चाहिए? स्वतंत्रता के बाद के दौर में भी देखें, तो राम मनोहर लोहिया और आचार्य कृपलानी जैसे लोगों का कोई महत्व नहीं? वैसे सफल कौन हुआ? जिसके लाश पर विभाजन होना था उसके आँखों के सामने ही देश बट गया। सफलता ही पूज्य है तो जिन्ना को ही क्यों न पूजें? उन्हें तो बस पाकिस्तान चाहिए था और ले कर दिखा दिया।
भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगडी कहते थे कि व्यक्ति की महानता उसके जीवनकाल में प्राप्त सफलताओं से अथवा प्रसिद्धि से तय नहीं होती वरन भवीष्य पर उसके विचारों के प्रभाव से तय होती है। वीर सावरकर के विचार आज भी प्रासंगिक हैं और उनका प्रभाव कहाँ तक होगा, यह आनेवाला समय बताएगा। इतिहास सावरकर से न्याय करेगा अथवा नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इतिहास कौन लिखेगा।

मंगलवार, 25 मार्च 2014

भीम के पुत्र ''घटोत्कच'' का विशालकाय कंकाल


भीम के पुत्र ''घटोत्कच'' का विशालकाय कंकाल वर्ष 2007 में नेशनल जियोग्राफिक की टीम ने भारतीय सेना की सहायता से उत्तर भारत के इलाके में खोजा था |

जिसके विषय में उस समय कई समाचार पत्रों में छपा था,पर भारत की ईसाई परस्त सरकार ने पूरे इलाके को सेना के हवाले कर इस खबर को सामने आने से रोकने का हर संभव प्रयास किया क्यों कि वेटिकन नहीं चाहता था की सनातन धर्म के पुरातन प्रमाण और सच्चाई सामने आये !

सुना है कि नेशनल ज्योग्राफिक की टीम इस कंकाल को अपने साथ ले गयी है यदि किसी भाई बहन के पास इससे सम्बंधित कोई जानकारी हो तो हमें उपलब्ध कराने का कष्ट करें |

इस कंकाल की लम्बाई अस्सी फुट है !






शनिवार, 22 मार्च 2014

भगत सिंह का पुश्तैनी घरः चिराग तले अंधेरा

चिराग तले अंधेरा... इस गाँव के बारे में ऐसा कहना एक गुस्ताख़ी है पर भारतीय पंजाब के नवाँशहर ज़िले में स्थित भगत सिंह के पुश्तैनी गाँव का यही सच भी है.


खट्करकलां नाम के इस गाँव में भगत सिंह का जन्म तो नहीं हुआ पर उनका पुश्तैनी मकान यहाँ आज भी है.
इस गाँव में आज भी भगत सिंह के पूर्वजों से जुड़ी यादें संजोकर रखी हुई हैं
पीले रंग में पुते इस पुराने मकान के बाहर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से एक नोटिस लगा हुआ है. मकान में कुल चार कमरे हैं जिनपर काँच के किवाड़ लगे हैं. इनपर ताला लगा है पर अंदर देखा जा सकता है. एक देखरेख के लिए नियुक्त कर्मचारी के अलावा यहाँ कोई नहीं रहता.
अंदर भगत सिंह के माता-पिता और परिजनों की एक पुरानी तस्वीर टंगी है. साथ में पीतल, कांसे और तांबे के कुछ बर्तन, एक पुरानी कुर्सी है. दूसरे कमरों में एक पुराना पलंग और कुछ दूसरे रोज़मर्रा के सामान हैं.
गांधी और भगत सिंह में वैचारिक मतभेद थे पर सूत कातने का एक चरखा भी यहाँ रखा हुआ है.

आज़ाद देश का गाँव

भगत सिंह के जन्म को 100 वर्ष और देश की आज़ादी को 60 बरस हो चुके हैं और इतने समय में आज़ाद भारत की तस्वीर काफ़ी बदल चुकी है. यह बदलाव इस गाँव में भी साफ़ दिखाई देता है.
खट्करकलाँ
गाँव में आज कई बड़ी आलीशान कोठियाँ खड़ी हैं
गाँव में सिखों के अलावा दलित, सवर्ण, मुस्लिम यानी सभी वर्गों की आबादी है. लगभग एक चौथाई घरों के लोग विदेशों में कमा रहे हैं और इसका असर गाँव पर भी दिख रहा है.
बड़े-बड़े मकानों, कोठियों में भगत सिंह का पैतृक घर छिपकर रह गया है. आलीशान कोठियों, साफ़ रास्तों और बड़ी गाड़ियों वाले इस गाँव के आगे कई शहर भी गंदे और पिछड़े नज़र आते हैं. कई घरों में 5-6 एसी तक लगे हैं पर कई घर गोबर के उपलों में ही खाना बनाते हैं.
यह बात और है कि दलितों और पिछड़ी जाति के लोगों की बस्ती अभी भी संकरी गलियों और खुली नालियों के साथ ही बसती है.
भगत सिंह के पैतृक निवास के पास अब एक पार्क है जिसमें हरा-भरा गलीचा है पर बड़ी कोठियों वाले गाँव ने इसे नहीं बनवाया, इसे पिछली राज्य सरकार के समय में बनवाया गया. गाँववाले तबतक यहाँ सारा कूड़ा और गंदगी डालते थे.
पंजाब के कई गाँवों के बाहर बड़े द्वार बने हैं. गाँव के नामी लोगों या धनी लोगों की स्मृति में, गाँववालों के सौजन्य से. ऐसा ही एक बड़ा-सा कंकरीट का द्वार इस गाँव के बाहर भी बना हुआ है जिसपर लिखा है शहीदे-आज़म भगत सिंह द्वार... पर इसे भी गाँव ने नहीं, प्रशासन ने बनवाया है.


भगत सिंह यानी मौज, मस्ती और..


गाँव में भगत सिंह के नाम पर पिछले कुछ बरसों से एक मेला लगता है- उनकी शहादत की याद में, 23 मार्च को.
खट्करकलाँ
गाँव अभी भी धार्मिक, जातिगत और सांप्रदायिक विभेद से नहीं उबर सका है
यहाँ के युवाओं से पूछा- भगत सिंह को कैसे याद करते हो. जवाब मिला- "मेले में याद करते हैं." मेले में क्या करते हो, जवाब मिला- "नाच, गाना, मौज, मस्ती..." पर भगत सिंह क्या सोचते थे के जवाब पर वो चुप हो जाते हैं. इन बड़े सवालों से उनका वास्ता नहीं.
भगत सिंह नास्तिक थे और यही बताते हुए उनका जीवन ख़त्म हुआ कि वो नास्तिक क्यों हैं पर गाँव में दो गुरुद्वारे हैं. एक गुरुद्वारा है सिंह सभा का जहाँ जा तो कोई भी सकता है पर वहाँ ज़्यादातर संपन्न और उच्च जाति के सिख जाते हैं.
दूसरा गुरुद्वारा गुरू रविदास गुरुद्वारा कहलाता है और यहाँ जाने वाले अधिकतर लोग दलित हैं.
यानी जाति-धर्म से ऊपर उठकर इंसान को एक बताने वाले भगत सिंह के गाँव के लोग आजतक ईश्वर को भी एक नहीं बना पाए. इंसानों को एक होने में न जाने कितना वक्त लगेगा.
गाँव के गुरुद्वारे के जत्थेदार से बातचीत की और पूछा कि क्या गाँव दूसरा भगत सिंह देगा तो जवाब में वो गाँव के सबसे धनी लोगों की तरक्की की प्रशंसा करने लग गए. गाँव में किसी भी तरह का सांप्रदायिक और जातीय भेदभाव होने को उन्होंने सिरे से ख़ारिज कर दिया.
भगत सिंह के घर की देखरेख करने वाले रामआसरे बताते हैं कि गाँव के 70 प्रतिशत लोगों को यह तक नहीं मालूम कि इस मकान में क्या यादें संजोई गई हैं. गाँव को अपनी चमक-दमक का ख्याल तो रहा पर भगत सिंह की सुध लेने का ज़िम्मा आज़ादी के पाँच दशकों तक सरकारों पर ही रहा.


नई पीढ़ी के भगत सिंह


इस गाँव में आने से पहले जितने काल्पनिक बिंब बन रहे थे, यहाँ आने के बाद सब ध्वस्त होते चले गए. गाँव की तरक्की और समृद्धि की चमक भी शायद इसी वजह से फीकी लगने लगी.
खट्करकलाँ
भगत सिंह के विचारों और प्रभाव से परे यह गाँव आम भारतीय गाँवों का ही चेहरा है
यह शायद भगत सिंह का गाँव नहीं है. यह वही गाँव है जो पंजाब का गाँव है, भारत का गाँव है. जिसके लिए विकास के मायने सामाजिक बदलाव नहीं, कंकरीट और स्टील है.
यहाँ के युवा भगत सिंह की नहीं पंजाब के उसी युवा की बानगी हैं जो आज नशे का शिकार है, गाड़ियों पर सवार है और बदलते भारत की चकाचौंध में आगे बढ़ रहा है. उसके पास आज तरह-तरह के साधन, संसाधन हैं पर इनसे वो भारत की तस्वीर बदलने के सपने पता नहीं देखता भी है या नहीं पर हाँ, ज़िंदगी का मज़ा ज़रूर लेना चाहता है.
यहाँ अमीर-ग़रीब, जाति-मज़हब, छोटा-बड़ा, समता-सम्मान.. ऐसे कई विशेषण आज भी विशेषण ही हैं, यहाँ की सच्चाई नहीं बन सके हैं.
यहाँ सरकार को दोष नहीं, श्रेय देना चाहिए. देर से ही सही, भगत सिंह का कुछ तो इस गाँव में संजोया जा चुका है. ईंट-पत्थरों और लोहे-पीतल के ही सही, भगत सिंह के कुछ निशान यहाँ दिखाई तो दे रहे हैं.