मंगलवार, 27 मई 2014

जानिए स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर जी को


यह धरा मेरी यह गगन मेरा, इसके वास्ते शरीर का कण-कण मेरा - इन पंक्तियों को चरितार्थ करने वाले क्रांतिकारियों के आराध्य देव स्वातंत्र्य विनायक दामोदर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। वे न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे । वे एक ऐसे इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हिन्दू-राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढँग से लिपिबद्ध किया है। उन्होंने 1847 के प्रथम स्वातंत्र्य समर का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया था ।
 
क्रांतिकारियों के मुकुटमणि और हिंदुत्व के प्रणेता वीर सावरकर का जन्म 28 मई, सन 1883 को नासिक जिले के भगूर ग्राम में हुआ था | इनके पिता श्री दामोदर सावरकर एवं माता राधाबाई दोनों ही धार्मिक और हिंदुत्व विचारों के थे जिसका विनायक दामोदर सावरकर के जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ा | मात्र नौ वर्ष की उम्र में हैजे से माता और 1899 में प्लेग से पिता का देहांत होने के कारन इनका प्रारंभिक जीवन कठिनाई में बीता |
वीर सावरकर एक नज़र में - पहल करने वालों में ''प्रथम'' थे सावरकर
अप्रितम क्रांतिकारी, दृढ राजनेता, समर्पित समाज सुधारक, दार्शनिक, द्रष्टा, महान कवि और महान इतिहासकार आदि अनेकोनेक गुणों के धनी वीर सावरकर हमेशा नये कामों में पहल करते थे । उनके इस गुण ने उन्हें महानतम लोगों की श्रेणी में उच्च पायदान पर लाकर खड़ा कर दिया। वीर सावरकर द्वारा किये गए कुछ प्रमुख कार्य जो किसी भी भारतीय द्वारा प्रथम बार किए गए -
- वे प्रथम नागरिक थे जिसने ब्रिटिश साम्राज्य के केन्द्र लंदन में उसके विरूद्ध क्रांतिकारी आंदोलन संगठित किया ।
- वे पहले भारतीय थे जिसने सन् 1906 में 'स्वदेशी' का नारा देकर विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी ।
- सावरकर पहले भारतीय थे जिन्हें अपने विचारों के कारण लन्दन में बैरिस्टर की डिग्री खोनी पड़ी ।
- वे पहले भारतीय थे जिन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की ।
- वे पहले भारतीय थे जिन्होंने सन् 1857 की लड़ाई को भारत का 'स्वाधीनता संग्राम' बताते हुए लगभग एक हजार पृष्ठों का इतिहास 1908 में लिखा ।
- वे पहले और दुनिया के एकमात्र लेखक थे जिनकी किताब को प्रकाशित होने के पहले ही ब्रिटिश और ब्रिटिश साम्राज्य की सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया ।
- वे दुनिया के पहले राजनीतिक कैदी थे, जिनका मामला हेग के अंतराष्ट्रीय न्यायालय में चला था ।
- वे पहले भारतीय राजनीतिक कैदी थे, जिसने एक अछूत को मंदिर का पुजारी बनाया था ।
- सावरकर ने ही वह पहला भारतीय झंडा बनाया था, जिसे जर्मनी में 1907 की अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम कामा ने फहराया था ।
- सावरकर ही वे पहले कवि थे, जिसने कलम-कागज के बिना जेल की दीवारों पर पत्थर के टुकड़ों से कवितायें लिखीं । कहा जाता है उन्होंने अपनी रची दस हजार से भी अधिक पंक्तियों को प्राचीन वैदिक साधना के अनुरूप वर्षों स्मृति में सुरक्षित रखा, जब तक वह किसी न किसी तरह देशवासियों तक नहीं पहुच गई ।
सन् 1947 में विभाजन के बाद आज भारत का जो मानचित्र है, उसके लिए भी हम सावरकर के ऋणी हैं । जबकांग्रेस ने मुस्लिम लीग के 'डायरेक्ट एक्शन' और बेहिसाब हिंसा से घबराकर देश का विभाजन स्वीकार कर लिया, तो पहली ब्रिटिश योजना के अनुसार पूरा पंजाब और पूरा बंगाल पाकिस्तान में जाने वाला था - क्योंकि उन प्रांतोंमें मुस्लिम बहुमत था। तब सावरकर ने अभियान चलाया कि इन प्रांतो के भारत से लगने वाले हिंदू बहुल इलाकोंको भारत में रहना चाहिए । लार्ड मांउटबेटन को इसका औचित्य मानना पड़ा। तब जाकर पंजाब और बंगाल कोविभाजित किया गया । आज यदि कलकत्ता और अमृतसर भारत में हैं तो इसका श्रेय वीर सावरकर को ही जाता है |
The Indian War of Independence - 1947
वीर सावरकर ने इस पुस्तक में सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिख कर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था जिसके कारण इस पुस्तक के प्रकाशन के लिए सावरकर जी को अनगिनत परेशानियों का सामना करना पड़ा । वीर सावरकर से पहले सभी इतिहासकारों ने 1947 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक "सिपाही विद्रोह" या अधिकतम "भारतीय विद्रोह" कहा था । यहाँ तक कि भारतीय विश्लेषकों ने भी इसे भारत में ब्रिटिष साम्राज्य के ऊपर किया गया एक योजनाबद्ध राजनीतिक एवं सैन्य आक्रमण ही कहा था ।
सावरकर प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने 1947 की घटनाओं को भारतीय दृष्टिकोण से देखा। सावरकर जी ने इस पूरी घटना को उस समय उपलब्ध साक्ष्यों व पाठ सहित पुनरव्याख्यित करने का निश्चय किया और कई महीने इण्डिया ऑफिस पुस्तकालय में इस विषय पर अध्ययन में बिताये । इस पुस्तक को सावरकर जी ने मूलतः मराठी में 1908 में पूरा किया परन्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी । इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे । इंडिया हाउस में रह रहकर छः छात्रों ने इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद किया और बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से 1909 में हॉलैंड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं । फिर इसका द्वितीय संस्करण लाला हरदयाल द्वारा गदर पार्टी की ओर से अमरीका में निकला, तृतीय संस्करण सरदार भगत सिंह द्वारा निकाला गया और चतुर्थ संस्करण नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा सुदूर-पूर्व में निकाला गया । फिर इस पुस्तक का अनुवाद उर्दु, हिंदी, पंजाबी व तमिल में भी किया गया । इसके बाद एक संस्करण गुप्त रूप से भारत में भी द्वितीय विश्व यु्द्ध के समाप्त होने के बाद मुद्रित हुआ । इसकी मूल पांडु-लिपि मैडम भीकाजी कामा के पास पैरिस में सुरक्षित रखी थी । यह प्रति अभिनव भारत के डॉ.क्यूतिन्हो को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पैरिसम संकट आने के दौरान सौंपी गई । डॉ.क्युतिन्हो ने इसे किसी पवित्र धार्मिक ग्रंथ की भांति ४० वर्षों तक सुरक्षित रखा । भारतीय स्वतंत्रता उपरांत उन्होंने इसे रामलाल वाजपेयी और डॉ.मूंजे को दे दिया, जिन्होंने इसे सावरकर को लौटा दिया। इस पुस्तक पर लगा निषेध अन्ततः मई, 1946 में बंबई सरकार द्वारा हटा लिया गया ।
सैल्यूलर जेल (Cellular Jail)
नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए 'नासिक षडयंत्र काण्ड' के अंतर्गत इन्हें 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया। यहाँ उन्हें दूसरी मंजिल की कोठी नंबर २३४ मैं रखा गया और उनके कपड़ो पर भयानक कैदी लिखा गया । कोठरी मैं सोने और खड़े होने पर दीवार छू जाती थी | उनके के अनुसार यहां स्वतंत्रता सेनानियों को नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था । साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल भी निकालना होता था । इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था । रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं । इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था। इतना कष्ट सहने के बावजूद भी वह रात को दीवार पर कविता लिखते, उसे याद करते और मिटा देते । सावरकर 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे ।
सबसे आश्चर्य की बात ये है कि आजादी के बाद भी जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस ने उनसे न्याय नहीं किया । देश का हिन्दू कहीं उन्हें अपना नेता न मान बैठे इसलिए उन पर महात्मा गाँधी की हत्या का आरोप लगा कर लाल किले मैं बंद कर दिया गया। बाद मे. न्यायालय ने उन्हें ससम्मान रिहा कर दिया। पूर्वाग्रह से ग्रसित कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें इतिहास मैं यथोचित स्थान नहीं दिया। स्वाधीनता संग्राम में केवल गाँधी और गांधीवादी नेताओं की भूमिका का बढा-चढ़ाकर उल्लेख किया गया ।
वीर सावरकर की मृत्यु के बाद भी कांग्रेस ने उन्हें नहीं छोडा । सन 2003 मैं वीर सावरकर का चित्र संसद के केंद्रीय कक्ष मैं लगाने पर कांग्रेस ने विवाद खडा कर दिया था। 2007 मैं कांग्रेसी नेता मणि शंकर अय्यर ने अंडमान के कीर्ति स्तम्भ से वीर सावरकर के नाम का शिलालेख हटाकर महात्मा गाँधी के नाम का पत्थर लगा दिया । जिन कांग्रेसी नेताओ ने राष्ट्र को झूठे आश्वासन दिए, देश का विभाजन स्वीकार किया, जिन्होंने शेख से मिलकर कश्मीर का सौदा किया, वो भले ही आज पूजे जाये पर क्या वीर सावरकर को याद रखना इस राष्ट्र का कर्तव्य नहीं है ?
क्रमबद्ध प्रमुख घटनाएँ
- पढाई के दौरान के विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके "मित्र मेलों" का आयोजन करना शुरू कर नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जगाना प्रारंभ कर दिया था ।
- 1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की ।
- 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई ।
- फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देकर युवाओ को क्रांति के लिए प्रेरित करते थे ।
- बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली ।
इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुये, जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे ।
- 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई । इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1847 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया ।
- 1908 में इनकी पुस्तक 'The Indian war of Independence - 1947" तैयार हो गयी |
- मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एक्ट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की, परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली ।
- लन्दन में रहते हुये उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाऊस की देखरेख करते थे ।
- 1 जुलाई, 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था ।
- 13 मई, 1910 को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया |
- 8 जुलाई, 1910 को एस०एस० मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले ।
- 24 दिसंबर, 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी ।
- 31 जनवरी, 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया ।
- नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया ।
- 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे ।
- 1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी । जेल में उन्होंने हिंदुत्व पर शोध ग्रन्थ लिखा ।
- मार्च, 1925 में उनकी भॆंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, डॉ० हेडगेवार से हुई ।
- फरवरी, 1931 में इनके प्रयासों से बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई, जो सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था ।
- 25 फरवरी, 1931 को सावरकर ने बम्बई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की ।
- 1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए 19वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिये अध्यक्ष चुने गये ।
- 15 अप्रैल, 1938 को उन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया ।
- 13 दिसम्बर, 1937 को नागपुर की एक जन-सभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिये चल रहे प्रयासों को असफल करने की प्रेरणा दी थी ।
- 22 जून, 1941 को उनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई ।
- 9 अक्तूबर, 1942 को भारत की स्वतन्त्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया । सावरकर जीवन भर अखण्ड भारत के पक्ष में रहे । स्वतन्त्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गान्धी और सावरकर का एकदम अलग दृष्टिकोण था ।
- 1943 के बाद दादर, बम्बई में रहे ।
- 19 अप्रैल, 1945 को उन्होंने अखिल भारतीय रजवाड़ा हिन्दू सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की ।
- अप्रैल 1946 में बम्बई सरकार ने सावरकर के लिखे साहित्य पर से प्रतिबन्ध हटा लिया ।
- 1947 में इन्होने भारत विभाजन का विरोध किया। महात्मा रामचन्द्र वीर नामक (हिन्दू महासभा के नेता एवं सन्त) ने उनका समर्थन किया ।
- 15 अगस्त, 1945 को उन्होंने सावरकर सदान्तो में भारतीय तिरंगा एवं भगवा, दो-दो ध्वजारोहण किये। इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने पत्रकारों से कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परन्तु वह खण्डित है, इसका दु:ख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं ।
- 5 फरवरी, 1948 को गान्धी-वध के उपरान्त उन्हें प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया ।
- 4 अप्रैल, 1950 को पाकिस्तानी प्रधान मंत्री लियाक़त अली ख़ान के दिल्ली आगमन की पूर्व संध्या पर उन्हें सावधानीवश बेलगाम जेल में रोक कर रखा गया ।
- मई, 1952 में पुणे की एक विशाल सभा में अभिनव भारत संगठन को उसके उद्देश्य (भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति) पूर्ण होने पर भंग किया गया ।
- 10 नवम्बर, 1957 को नई दिल्ली में आयोजित हुए 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे ।
- 8 अक्तूबर, 1959 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी०.लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया ।
- सितम्बर, 1966 से उन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा, जिसके बाद इनका स्वास्थ्य गिरने लगा ।
- 1 फरवरी, 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया ।
- 26 फरवरी, 1966 को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः १० बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को प्रस्थान किया ।
सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी थी जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। सावरकर के अनुसार -
"मातृभूमि ! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ। देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की है |"
निसंदेह अंग्रेजो की सरकार के लिए वीर सावरकर के क्रांतिकारी विचार एक बहुत बड़ी समस्या से थे, और सावरकर जी अंग्रेजी सरकार के लिए हमेशा ही एक "खलनायक" थे | शायद भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, लाला लाजपत रॉय जैसे खलनायक, या फिर उनसे भी बड़े महाखलनायक थे |
लेकिन आज न तो अंग्रेजो की सरकार है और न ही हम अँगरेज़ है | वो अंग्रेजी सरकार के लिए क्या थे, आज ये प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है | आज हम स्वतंत्र है, लेकिन फिर भी यदि कोई व्यक्ति या दल वीर सावरकर जी को खलनायक, गद्दार या कुछ ऐसा ही कहता है, तब ऐसे व्यक्तियों या दल पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है | इतना ही नहीं, इनकी सोच से देश और देशवासियों के प्रति चल रहे किसी गूढ़ षड़यंत्र की बू आती है | 
उपरोक्त जानकारी के बाद अब आपको निर्णय लेना है कि क्या वीर सावरकर को खलनायक या गद्दार कहने वाले किसी भी व्यक्ति अथवा दल की सोच भारतीय हो सकती है ? भारत को कुछ लोगो अथवा परिवार का गुलाम मानने वाले  लोगो ने सावरकर जी को कुछ अपशब्द कहें है, एक ऐसे व्यक्ति को जिसने अपना पूरा जीवन भारतीय संस्कृति की रक्षा और देश की आज़ादी के लिए समर्पित कर दिया | क्या इन लोगो की सोच किसी भी प्रकार से भारतीय हो सकती हो ? क्या ये लोग आपके और मेरे भारत के मित्र हो सकते है ? क्या ये भारत माता के सेवक है या आज भी अंग्रेजो के गुलाम ? अब इन लोगो के साथ आपको कैसा व्यहार करना है, इसका निर्णय आपको स्वं ही लेना होगा |

हमारे पेज से जुड़ने के लिए 
https://www.facebook.com/Inqalab.ek.sangharsh

वीर सावरकर

वीर सावरकर

स्वातंत्र्यवीर सावरकर के नाम से प्रसिद्ध विनायक दामोदर सावरकर एक निर्भीक स्वाधीनता सेनानी, समाज सुधारक, लेखक, नाटककार, कवि, इतिहासकार, राजनेता और दार्शनिक थे। दशकों तक उनके विरुद्ध चले द्वेषपूर्ण प्रचार के कारण उत्पन्न गलतफहमी के चलते वे एक बड़े वर्ग के लिये प्रायः अपरिचित रहे। उनके जीवन, विचार तथा कार्य की प्रासंगिकता को जानिए..

वीर सावरकर – एक अपूर्व व्यक्तित्व

  • प्रथम राजनेता, जिन्होंने साहसपूर्वक पूर्ण राजनैतिक स्वतंत्रता को भारत का लक्ष्य बताया (1900)
  • प्रथम राजनेता, जिन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलायी (7 जुलाई 1905, पुणे)
  • प्रथम भारतीय, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्वतंत्रता के लिये क्रांतिकारी आन्दोलन प्रारंभ किया (1906)
  • प्रथम भारतीय विधि छात्र, जिसे ब्रिटिश राज से भारत की स्वतंत्रता पाने संबंधी गतिविधियों के कारण परीक्षा उत्तीर्ण करने तथा अन्य आवश्यक औपचारिकताएं पूरी करने के उपरान्त भी इंग्लिश बार में नहीं आमंत्रित किया गया/स्थान नहीं दिया गया (1909) / प्रथम छात्र जिनकी बैरिस्टर की उपाधि राजनिष्ठा की शपथ लेने से इनकार करने के कारण रोक ली गयी
  • एकमात्र भारतीय नेता, जिनकी लंदन में गिरफ्तारी ने ब्रिटिश न्यायालय के समक्ष वैधानिक समस्या उत्पन्न कर दी । यह प्रकरण फ्यूजिटिव ऑफेंडर्स एक्ट तथा हैबियस कॉर्पस की समुचित व्याख्या हेतु लंबित है।
  • प्रथम भारतीय इतिहासकार, जिनकी पुस्तक “1857 का स्वातंत्र्य समर” को प्रकाशन से पूर्व ही ब्रिटिश उच्चाधिकारियों द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था। आधिकारिक प्रतिबंध के छः माह पूर्व ही गवर्नर जनरल ने पोस्टमास्टर जनरल को पुस्तक की प्रतियां जब्त करने को कहा। (1909)
  • प्रथम राजनैतिक बंदी, जिनकी साहसिक फरारी तथा फ्रांस की भूमि पर पुनः गिरफ्तारी के कारण हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मुकदमा चलाया गया। इस प्रकरण का उल्लेख तत्कालीन अनेक अंतरराष्ट्रीय संधियों में किया गया।
  • प्रथम स्नातक, जिसकी उपाधि भारत की स्वतंत्रता हेतु प्रयत्न के कारण भारतीय़ विश्वविद्यालय द्वारा वापस ले ली गयी। (1911)
  • प्रथम साहित्यकार, जिन्होंने लेखनी और कागज से वंचित होने पर भी, अंदमान जेल की दीवारों पर कीलों, कांटों और यहां तक कि नाखूनों से भी, विपुल साहित्य का सृजन किया और दस हजार से अधिक पंक्तियों को वर्षों तक कंठस्थ रखा और अपने सहबंदियों को भी कंठस्थ कराकर उनके द्वारा देशवासियों तक पहुंचाया  
  • प्रथम क्रांतिकारी नेता, जिन्होंने सुदूर रत्नागिरि जिले में नजरबंदी के दौरान दस वर्ष से भी कम समय में अस्पृश्यता को समाप्तप्रायः कर दिया।
  •  प्रथम भारतीय नेता, जिन्होंने सफलतापूर्वक प्रारंभ किया -
    • गणेशोत्सव, पूर्व अस्पृश्यों सहित सभी हिन्दुओं के लिये (1930)
    • सहभोज समारोह, पूर्व अस्पृश्यों सहित सभी हिन्दुओं के लिये (1931)
    • पतितपावन मंदिर, पूर्व अस्पृश्यों सहित सभी हिंदुओं के लिये (22 फरवरी 1931)
    • जलपानगृह, पूर्व अस्पृश्यों सहित सभी हिन्दुओं के लिये (1 मई 1933)
  • विश्व के प्रथम राजनैतिक बंदी, जिन्हें दो जन्मों का कारावास एवं निर्वासन का दण्ड मिला, समूचे ब्रिटिश साम्राज्य में यह अद्वितीय घटना है।
  • प्रथम राजनेता, जिन्होंने योग की उच्चतम स्थिति प्राप्त कर आत्मसमर्पण द्वारा प्राणोत्सर्ग किया।

स्वातंत्रय सेनानी वीर सावरकर – अन्याय से पूर्ण एक अमरगाथा

6यह कहा जाए कि आधुनिक भारतीय इतिहास में जिस महापुरुष के साथ सबसे अधिक अन्याय हुआ, वह सावरकर ही हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सावरकर ‘नाख़ून कटाकर’ क्रन्तिकारी नहीं बने थे। 27 वर्ष की आयु में, उन्हें 50-50 वर्ष के कैद की दो सजाएँ हुई थीं। 11 वर्ष के कठोर कालापानी के सहित उन्होंने कुल 27 वर्ष कैद में बिताए। सन 1857 के विद्रोह को ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ बताने वाली प्रामाणिक पुस्तक सावरकर ने ही लिखी। ब्रिटिश जहाज से समुद्र में छलांग लगाकर, सावरकर ने ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अंतर्राष्ट्रीयकरण किया। ‘हिंदुत्व’ नामक पुस्तक लिखकर सावरकर ने ही भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित किया। जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का विरोध, पूरी शक्ति से सावरकर ने ही किया। जातिवाद और अश्पृश्यता का जैसा विरोध वीर सावरकर ने किया था, वैसा तो कांग्रेस तब क्या, आज भी नहीं कर सकती है।
लेकिन देश उन्हें कैसे याद करता है? भारत रत्न प्राप्त कर चुके 41 महानुभावों के सूचि में वीर सावरकर का नाम नहीं है। उनके जन्मदिन पर संसद में उनके चित्र पर माल्यार्पण करने के लिए सरकार का कोई प्रतिनिधि नहीं होता है। सेक्युलरिज्म के स्वयम्भू दूत मणि शंकर अय्यर ने तो सेल्युलर जेल से भी सावरकर की यादों को मिटने का प्रयास किया जहाँ वीर सावरकर ने कालापानी की सजा काटी थी। अपनी चमड़ी बचाने के लिए सावरकर के लंबे और एतिहासिक भाषण के एक वाक्य को उठाकर उन्हें ‘हिन्दू जिन्ना’ बनाने की कोशिश होती रही है और उन्हें विभाजन के लिए भी जिम्मेवार ठहराने की कोशिश होती रहा है। मानो भारतीय जनमानस के ‘स्वयम्भू’ प्रतिनिधि सावरकर ही रहे हों। जबकि सत्य तो यही है कि सावरकर ने अंत तक विभाजन को स्वीकार नहीं किया।
सावरकर को बदनाम करने के निकृष्ट अभियान में भारत के तथाकथित वामपंथी और गांधीवादी बुद्धिजीवियों ने अपूर्व एकता का परिचय दिया। इन बुद्धिजिवियों ने सावरकर पर तीन मुख्य आरोप लगाये: 1) अंग्रेजों से माफ़ी मांगना, 2) दूसरा हिन्दू साम्प्रदायिकता का जनक होना, 3) गांधी के हत्या का षड़यंत्र रचना। आगे हम इन आरोपों की पड़ताल करेंगे…
सावरकर पर पहल आरोप है अंग्रेजों से क्षमा याचना का। यह ठीक है कि जब 1913 में जब गवर्नर-जनरल का प्रतिनिधि रेजिनाल्ड क्रेडॉक पोर्ट ब्लेयर गया तो सावरकर ने अपनी याचिका पेश की। यह ठीक है कि सावरकर ने खूनी क्राति का मार्ग छोड़कर संवैधानिक रास्ते पर चलने का और राजभक्ति का आश्वासन दिया लेकिन ज़रा गौर कीजिए कि सावरकर की याचिका पर क्रेडोक ने क्या कहा| क्रेडोक ने अपनी गोपनीय टिप्पणी में लिखा कि ‘सावरकर को अपने किए पर जरा भी पछतावा या खेद नहीं है और वह अपने  ह्रदय परिवर्तन का ढोंग कर रहा है|’ उसने यह भी लिखा कि सावरकर सबसे खतरनाक कैदी है| भारत और यूरोप के क्रांतिकारी उसके नाम की कसम खाते हैं और यदि भारत भेज दिया गया तो वे उसे भारतीय जेल तोड़कर निश्चय ही छुड़ा ले जाऍंगे| इस याचिका के बाद भी सावरकर ने लगभग एक दशक तक ‘काले पानी’ की महायातना भोगी| यहाँ दो बातें समझना आवश्यक है। पहली यह कि कालापानी की सजा इतनी भयंकर हुआ करती थी कि वहाँ से कोई व्यक्ति जीवित वापस नहीं आता था। सावरकर के आदर्श वीर शिवाजी थे, उन्हें पता था कि राष्ट्र की सेवा के लिए जीवित रहना आवश्यक है। उन्हें यह भी अच्छी तरह पता था कि अंडमान द्वीप से निकलने का एकमात्र रास्ता यह ‘हृदय-परिवर्तन’ ही है। इसलिए उन्होंने यह प्रयास किया यद्यपि असफल रहे।
यदि अंग्रेजों के सामने याचिका प्रस्तुत करना अपराध है तो कांग्रेस का एक भी बड़ा नेता ऐसा नहीं, जिसने इसका उपयोग नहीं किया हों। जहाँ तक राजभक्ति के आश्वासन की बात है तो गांधीजी ने तो कई बार राजभक्ति की शपथ ली थी और प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार का साथ भी दिया था। जो वामपंथी बुद्धिजीवी सावरकर का उपहास करते रहे हैं उन्हें लेनिन और स्टालिन के कारनामों की जानकारी होनी ही चाहिए।
दूसरा आरोप सावरकर पर, हिन्दुवादी साम्प्रदायिकता के जनक होने का है। पहले तो यह तय हो कि इस धरा पर हिन्दू साम्प्रदायिकता जैसा कुछ है भी या नहीं। संप्रदाय का आशय होता है ‘सम्यक प्रकारेण प्रदीयते इति सम्प्रदाय’। अर्थात एक गुरु के द्वारा समूह को सम्यक रूप से प्रदान की गई व्यवस्था को ‘संप्रदाय’ कहते हैं। इस अर्थ में इस्लाम, इसाई, मार्क्सवादी, माओवादी, संप्रदाय हो सकते हैं। हिन्दू समाज के अंदर भी जैन, बौद्ध, सिक्ख, नाथ इत्यादि कई संप्रदाय हैं लेकिन स्वयम हिन्दू समाज ही एक संप्रदाय नहीं है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए कहा था कि ‘religion’ को भारतीय सन्दर्भ में धर्मं का समानार्थी बताना बहुत बड़ी भूल थी। ‘religion’, संप्रदाय का समानार्थी शब्द है, धर्मं का नहीं। इस गलत अनुवाद के कारण लोग अब धर्म और संप्रदाय को पर्यायवाची शब्द समझने लगे हैं। मानो ‘धार्मिक होना’ और ‘साम्प्रदायिक होना’ एक ही बात हों।
6वीर सावरकर की लिखी एक लघु पुस्तक है ‘हिंदुत्व’। भारतीय जनमानस पर प्रभाव के दृष्टिकोण से देखें तो यह उनकी सबसे अधिक महत्वपूर्ण रचना है। यदि प्रति शब्द प्रभाव के गणित से देखा जाए तो ‘हिंदुत्व’ निश्चय ही मार्क्स के ‘कैपिटल’ से अधिक प्रभावशाली पुस्तक प्रमाणित हुई है। ‘हिंदुत्व’ भारतीय राष्ट्रीयता को परिभाषित करने वाली पहली पुस्तक है। सावरकर के इस निर्मम थे। वे यथासंभव तथ्यपरक बने रहने की कोशिश करते थे। अपने पुस्तक ‘हिंदुत्व’ में सावरकर ने किसी का तुष्टिकरण नहीं किया है बल्कि कटु सत्य बताया है। हाँ, लगभग 90 वर्षों के पश्चात, आज उसमे से कितने तर्क प्रासंगिक रह गए हैं और कितने अप्रासंगिक, यह अलग प्रशन है। उन्होंने आर्यों के मध्य एशिया से भारत में आने की बात कही है क्योंकि उस समय तक यह प्रमाणित नहीं हुआ था कि सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में एक ही रक्त समूह के लोग बसते हैं और तब तक स्थापित मान्यता यही थी कि भारतीय आर्य बाहर से आये हैं। उन्होंने हिन्दू के परिभाषा में उन सभी संप्रदायों को शामिल किया है जिनकी पुण्यभूमि भारत ही है। लेकिन सावरकर मुसलमानों एवं ईसाईयों को हिन्दू स्वीकार करने से इनकार करते हैं और इसका आधार इनके पुण्यभूमि के भारत से बाहर होना है।
उस समय में जो वैश्विक और विशेषकर भारतीय परिस्थितियां थी उसमे ‘पुण्यभूमि’ के लिए निष्ठा के आगे ‘पितृभूमि’ के लिए निष्ठा नगण्य थी।  ‘हिंदुत्व’ सन 1923 में लिखी गयी थी। उस समय खिलाफत आंदोलन चरम पर था। भारत की परतंत्रता के प्रति प्रायः उदासीन रहने वाला मुस्लिम समाज अपने पुण्यभूमि की रक्षा के लिए पूरी तरह उद्वेलित था। कांग्रेस और कांग्रेस के कारण हिंदू समाज भी खिलाफत के समर्थन में खड़ा था। जबकि इस आंदोलन के जोश में मुस्लिम समाज भारत में ही निजाम-ए-मुस्तफा कायम करने पर तुला हुआ था। उसी कालखंड में, केरल के मोपला में हिंदुओं का भीषण संहार हुआ और उनका सामूहिक धर्मान्तरण भी किया गया। उसी दौर में मुस्लिम लीग ने अफगानिस्तान के बादशाह को भारत पर कब्ज़ा करने का निमंत्रण दिया। ऐसे दौर में सावरकर राष्ट्रवाद को भला और कैसे परिभाषित करते? वे ‘इश्वर अल्लाह तेरे नाम’ कैसे गाते जबकि ‘अल्लाह के बंदे’, ‘इश्वर के भक्तों’ को मिटा कर भारत को ‘दारुल इस्लाम’ बनने पर तुले हुए थे? वे उपन्यास नहीं लिख रहे थे वरन भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित कर रहे थे, तो क्या वीर सावरकर कर्णप्रिय मिथ्या लिखते या कटु सत्य? निस्संदेह उन्होंने कटु सत्य चुना। वीर सावरकर ने हिंदुत्व में लिखा भी है कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व में अभिन्न सम्बन्ध होने के बाद भी दोनों एक दूसरे का पर्याय नहीं हैं। उन्होंने कई बार पर स्पष्ट किया है कि हिंदुत्व, हिन्दुइज्म (Hinduism) नहीं है।
तीसरा आरोप है उनपर, महात्मा गांधी के हत्या के षड़यंत्र में शामिल होने का। महात्मा गांधी की हत्या हिंदू महासभा के एक कार्यकर्ता ने की थी। निवर्तमान शासन ने सोचा कि क्यों न एक झटके में ही सभी हिंदुत्व समर्थ शक्तियों को समाप्त कर दिया जाये। इसीलिए गाँधी के हत्या के षड़यंत्र में वीर सावरकर को भी आरोपी बनाया गया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी, सावरकर भी गिरफ्तार हुए और गोलवलकर गुरूजी भी। लेकिन न्यायालय में यह प्रमाणित हुआ कि सावरकर गाँधी के हत्या के षड़यंत्र में शामिल नहीं थे वरन उन्हें गाँधी के हत्या के षड़यंत्र में आरोपी बनाने का षड़यंत्र हुआ था। सावरकर ससम्मान मुक्त किये गए (लेकिन हमें यही पढाया जाता है कि उन्हें ‘सबूतों के अभाव’ में छोड़ दिया गया। सबूत होने के बाद भी किसी को न्यायलय से मुक्त किया जाता हो तो हमें भी बताया जाए)।
6
वीर सावरकर के विरुद्ध साजिशकर्ताओं को संभवतः पता रहा हो कि उन्हें सजा देने लायक कोई सबूत नहीं है। लेकिन वे हिंदुत्व के जनक को बदनाम करना चाहते थे। वीर सावरकर का राजनीतिक करियर यहीं समाप्त हो गया और हिंदू महासभा भी पुनः खड़ी नहीं हो सकी। आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर गुरूजी ने कहा भी था कि गाँधी हत्या के आरोप के कारण संघ 30 वर्ष पीछे चला गया। वीर सावरकर और आरएसएस पर इस षड़यंत्र में शामिल होने का झूठा आरोप यह प्रमाणित करता है कि ‘गांधीवादियों’ ने गाँधी के चिता के साथ ही गांधीवाद भी जला दिया था।
भारतीय राजनीति में वीर सावरकर कि तुलना महात्मा गाँधी से ही हो सकती है। दोनों अलग ध्रुव थे, गांधी आदर्शवादी थे तो वीर सावरकर यथार्थवादी। इसमे संदेह नहीं कि सावरकर कि अपेक्षा गाँधी की स्वीकार्यता बहुत अधिक थी। लेकिन यहाँ ध्यान देने की बात है कि गाँधी का भारतीय राजनीति में आगमन सन 1920 के आसपास हुआ था जबकि सावरकर ने सन 1937 में हिंदू महासभा में का नेतृत्व लिया था (सन 1937 तक वीर सावरकर पर राजनीति में प्रवेश की पाबन्दी थी)। जब गांधी भारतीय राजनीति में आये तो शिखर पर एक शुन्य था, तिलक और गोखले जैसे लोग अपने अंतिम दिनों में थे। लेकिन जब वीर सावरकर आये तब गाँधी एक बड़े नेता बन चुके थे। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लोग महात्मा गाँधी को चमत्कारी पुरुष मानते थे और उनके नाम से कई किंवदंतियाँ प्रचलित थी, जैसे कि वे एकसाथ जेल में भी होते हैं और मुंबई में कांग्रेस की सभा में भी उपस्थित रहते हैं (पता नहीं इस तरह की कहानियों को प्रचलित करने में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का कितना योगदान है)। ऐसे में सावरकर गाँधी के तिलिस्म को तोड़ नहीं सके, यद्यपि पढ़े लिखे लोगों के मध्य उनकी स्वीकार्यता अधिक थी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ। श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर प्रसिद्ध वकील निर्मलचन्द्र चटर्जी तक उनके अनुयायियों में थे (इन्ही निर्मल चंद्र चटर्जी के पुत्र हैं पूर्व लोकसभा अध्यक्ष- सोमनाथ चटर्जी)।
यदि सावरकर भी सन 1920 के आसपास ही राजनीति में आये होते तो जनमानस किसके साथ जाता, यह कोई नहीं जानता। वीर सावरकर उस दौर में एकमात्र राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने गाँधी से सीधे लोहा लिया था। कांग्रेस के अंदर और बाहर भी, ऐसे लोगों की लंबी सूचि है जो गाँधी से सहमत नहीं थे लेकिन कोई भी उनसे टक्कर नहीं ले सका। लेकिन सावरकर ने स्पष्ट शब्दों में अपनी असहमति दर्ज कराई। उन्होंने खिलाफत आंदोलन का पूरी शक्ति से विरोध किया और इसके घातक परिणामों की चेतावनी दी। इससे कौन इनकार करेगा कि खिलाफत आंदोलन से ही पाकिस्तान नाम के विषवृक्ष कि नीव पड़ी? इसी तरह सन 1946 के अंतरिम चुनावों के समय भी उन्होंने हिंदू समाज को चेतावनी दी कि कांग्रेस को वोट देने का अर्थ है ‘भारत का विभाजन’, वीर सावरकर सही साबित हुए। वीर सावरकर की सोच पूरी तरह वैज्ञानिक थी लेकिन तब भारत उनके वैज्ञानिक सोच के लिए तैयार नहीं था।
यह सच है कि सावरकर अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हुए। लेकिन सफलता ही एकमात्र पैमाना हो तो रानी लक्ष्मीबाई, सरदार भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे कई महान विभूतियों को इतिहास से निकाल देना चाहिए? स्वतंत्रता के बाद के दौर में भी देखें, तो राम मनोहर लोहिया और आचार्य कृपलानी जैसे लोगों का कोई महत्व नहीं? वैसे सफल कौन हुआ? जिसके लाश पर विभाजन होना था उसके आँखों के सामने ही देश बट गया। सफलता ही पूज्य है तो जिन्ना को ही क्यों न पूजें? उन्हें तो बस पाकिस्तान चाहिए था और ले कर दिखा दिया।
भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगडी कहते थे कि व्यक्ति की महानता उसके जीवनकाल में प्राप्त सफलताओं से अथवा प्रसिद्धि से तय नहीं होती वरन भवीष्य पर उसके विचारों के प्रभाव से तय होती है। वीर सावरकर के विचार आज भी प्रासंगिक हैं और उनका प्रभाव कहाँ तक होगा, यह आनेवाला समय बताएगा। इतिहास सावरकर से न्याय करेगा अथवा नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इतिहास कौन लिखेगा।